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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir श्रमण-सूत्र सकता । सुवती होने के लिये सबसे पहली एवं मुख्य शर्त यह है किउसे शल्य-रहित होना चाहिए। इसी आदर्श को ध्यान में रख कर प्राचार्य उमास्वातिजी तत्वार्थ सूत्र में कहते हैं--'निःशल्यो व्रती'-७॥१३॥ ___ माया, निदान और मिथ्यादर्शन, उक्त तीनों दोप श्रागम की भाषा में शल्य कहलाते हैं । इनके कारण आत्मा स्वस्थ नहीं बन सकता, स्वीकृत व्रतों के पालन में एकाग्र नहीं हो सकता । __ शल्य का अर्थ होता है--जिसके द्वारा अन्तर में पीड़ा सालती रहती हो, कसकती रहती हो वह तीर, भाला, काँटा श्रादि । द्रव्य और भाव दोनों शल्यों पर घटने वाली प्राचार्य हरिभद्र की शल्य-व्युत्पत्ति यह है:'शल्यतेऽनेनेति शल्यम् ।' श्राध्यात्मिक क्षेत्र में माया, निदान और मिथ्यादर्शन को लक्षणा वृत्ति के द्वारा शल्य इसलिए कहा है कि जिस प्रकार शरीर के किसी भाग में काँटा, कील तथा तीर आदि तीक्ष्ण वस्तु घुस जाय तो जैसे वह मनुष्य को नुब्ध किए रहती है, चैन नहीं लेने देती है; उसी प्रकार सूत्रोक्त शल्यत्रय भी अन्तर में रहे हुए साधक की अन्तरात्मा को शान्ति नहीं लेने देते हैं, सर्वदा व्याकुल एवं बेचैन किए रहते हैं। तीनों ही शल्य, तीव्र कम बन्ध के हेतु हैं, अतः दुःखोलादक होने के कारण शल्य हैं। माया-शल्य ___ माया का अर्थ कपट होता है। अतएव छल करना, टोग रचना, ठगने की वृत्ति रखना, दोष लगा कर गुरुदेव के समक्ष माया के कारण अालोचना न करना, अन्य रूप से मिथ्या पालोचना करना, तथा किसी पर झूठा आरोप लगाना; इत्यादि माया-शल्य है । 'निदान-शल्य __धर्माचरण के द्वारा सांसारिक फल की कामना करना, भोगों की लालसा रखना, निदान शल्य होता है। उदाहरण के लिए देखिए । किसी राजा अथवा देवता आदि का वैभव देख कर किंवा सुन कर मनमें For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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