SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir दण्ड-सून चारित्ररूप प्राध्यात्मिक ऐश्वर्य का विनाश होने के कारण यात्मा दण्डितधर्म भ्रष्ट होता है । 'दण्ड्यते चारित्रैश्वर्यापहारतोऽसारीक्रियते एभिरात्मेति दण्डाः द्रव्यभावभेदभिन्नाः । भावदंडैरिहाधिकारः"" मनः-प्रभृतिभिश्च दुष्प्रयुक्तै दण्डयते अात्मेति ।' आचार्य हरिभद्र । आगमकार उक्त दण्डों से बचने के लिए साधक को सर्वथा सावधान करते हैं । इस सम्बन्ध में जरा सी भूल भी प्रात्मा का पतन करने वाली है। ____ मन, वचन, शरीर की अशुभ प्रवृत्ति दण्ड है । इस अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा ही अपने आप को तथा दूसरे प्राणियों को दुःख पहुँचता है। किस दण्ड से किस प्रकार दुःख पहुंचता है ? किस प्रकार श्रेष्ठ प्राचार मलिन होता है ? इसके लिए नीचे की तालिका पर दृष्टिपात कीजिएमनो-दण्ड (१) विपाद करना, (२) निर्दय विचार करना, (३) व्यर्थ कल्पनाएँ करना, (४) मन को वश में न करके इधर-उधर भटकने देना, (५) दूषित और अपवित्र विचार रखना, (६) किसी के प्रति घृणा, द्वेष, अनिष्ट चिन्तन करना आदि-आदि। वचन-दण्ड (१) असत्य = मिथ्या भाषण करना, (२) किसी की निन्दा व चुगली करना, (३) कड़वा बोलना, गाली एवं शार देना, (४) अपनी बड़ाई हाँकना । ५) व्यर्थं की बाते करना, (६) शास्त्रों के सम्बन्ध में मिथ्या प्ररूपणा करना, आदि । काय-दण्ड (१ ) किसी को पीड़ा पहुँचाना, मार पीट करना, (२) व्यभिचार करना, (३) किसी की चीज़ चुराना, (४) अकड़ कर चलना, (५) व्यर्थ की चेटाएँ करना, (६) असावधानी से चलना, किसी चीज़ के उठाने रखने में अयतना करना, आदि । For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy