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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ११२ श्रमण सूत्र हर्षित । अब बताइए, चन्द्रमा दुःखरूप है अथवा सुखरूप ? आप कहेंगे, दोनों में से एक भी नहीं । यदि वह दुःख रूप होता तो प्रत्येक कों दुःख ही देता । और सुखरूप ही होता तो प्रत्येक को सुख ही देता। परन्तु ऐसा है कहाँ ? वह तो एक ही समय में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न रूप में सुख-दुःख का जनक होता है। अतएव पं० ठोडरमल्ल जी राग-द्वोष करने को मिथ्या भाव बतलाते हैं। किसी वस्तु में उस वस्तु से विपरीत भावना करना ही तो मिथ्या भाव है और यहाँ पर द्रव्य में इष्टता तथा अनिष्टता कुछ भी नहीं है, परन्तु रागद्वेष के द्वारा उसमें वह की जाती है ! अतएव राग द्वष, मिथ्या नहीं तो क्या है ? । जैन धर्म का सम्पूर्ण साहित्य, राग द्वेष के विरोध में ही सन्नद्ध किया गया है । जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है, फलतः उसने राग-द्वीप की निवृत्ति पर अत्यधिक बल दिया है। राग-द्वेष को घटाए विना तपश्चरण का, साधना का कुछ अर्थ नहीं रहता। प्राचार्य मुनिचन्द्र का एक श्लोक है-"रागद्वषो यदि स्यातां तपसा किं प्रयोजनम् ?" . प्रस्तुतसूत्र में रागद्वेष को बन्धन कहा है। रागद्वेष के द्वारा अष्टविध कर्मों का बन्धन होता है, अतः वे बन्धन पदवाच्य हैं। "बद्धंयतेऽष्टविधेन कर्मणा येन हेतुभूतेन तद् बन्धनम् --आचार्य नमि । प्राचार्य जिनदास महत्तर-कृत राग-द्वेष की व्याख्या का भाव यह है-जिसके द्वारा आत्मा कम से रँगा जाता है, वह मोह की परिणति राग है और जिस मोह की परिणति से किसी से शत्रु ता, घृणा, क्रोध, अहंकार आदि किया जाता है. वह द्वष है । 'रंजन रज्यते वाऽनेन जीव इति रागः, राग एवं बन्धनम् । द्वषणं द्विषत्यनेन इति वा द्वषः, द्वष एव बन्धनम् ।' अावश्यक चूणि । प्राचार्य हरिभद्र, अपनी श्रावश्यक टीका में, एक श्लोक उद्धृत करते हैं, जो राग-द्वप से होने वाले कर्मबन्ध पर अच्छा प्रकाश डालता है: For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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