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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir काल-प्रतिलेखना-सूत्र उसे अपने कानों से भी ध्यान पूर्वक सुनते जायें। जिह्वा और श्रोत्र दो इन्द्रियों के एक साथ काम करने से मन अवश्य एकाग्र हो जाता है। अच्छा हो, यदि पाठ करते समय प्रत्येक पंक्ति को ठहर-ठहर कर दो तीन बार पढ़ा जाय। (२) नैरन्तय- स्वाध्याय में जहाँ तक हो सके अन्तर (विक्षेप) नहीं होना चाहिए । थोड़ा-बहुत स्वाध्याय नित्य नियमपूर्वक करते ही रहना चाहिये । परंपरा की कड़ी टूटते ही स्वाध्याय की वही हालत होती है जैसी कि साँकल की कड़ी टूटने पर साँकल की होती है। (३) विषयोपति-स्वाध्याय के लिए ग्रन्थों का चुनाव करते समय यह ध्यान में रखना चाहिए कि हमारा उद्देश्य सांसारिक विषयवासनाओं के जीवन से ऊपर उठना है। अतः रागद्वष, घृणा शृंगार आदि की पुस्तके न पढ़ कर सदाचार, भक्ति और कर्तव्यसम्बन्धी पुस्तके ही पढ़नी चाहिएँ। (४) प्रकाश की उत्कण्ठा-स्वाध्याय करते समय मन में यह दृढ़ विश्वास होना चाहिए कि पाठ के द्वारा हमारी अन्तःस्थ आत्मा में प्रकाश फैल रहा है। संकल्प का बल महान होता है, अतः स्वाध्याय के समय का शुद्ध संकल्प अवश्य ही अन्तज्योति प्रदान करेगा। (१) स्वाध्याय का स्थान-स्वाध्याय के लिए पवित्र एवं शुद्ध चातावरण से सम्पन्न स्थान होना चाहिए । जो स्थान कोलाहल एवं गंदे दृश्यों वाला हो, वह स्वाध्याय के लिए सर्वथा अनुपयुक्त होता है। प्रतिलेखना ___ साधु के पास जो भी वस्त्र पात्र आदि उपधि हो, उसकी दिन में दो बार-प्रातः और सायं-प्रतिलेखना करनी होती है। उपधि को विना देखे-भाले उपयोग में लाने से हिंसा का दोष लगता है । उपधि में सूक्ष्म जीवों के उत्पन्न हो जाने की अथवा बाहर के जीवों के आश्रय लेने की संभावना रहती है; अतः प्रत्येक वस्तु का सूक्ष्म निरीक्षण करते हुए जीवों को देखना माहिए, और यदि कोई जीव दृष्टिगत हो तो उसे For Private And Personal
SR No.020720
Book TitleShraman Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarchand Maharaj
PublisherSanmati Gyanpith
Publication Year1951
Total Pages750
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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