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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऐतिहासिक सार - भाग । कर लोक शास्त्रवर्णित भरतादिकों के महोत्सवों की कल्पना करने लगे थे । ६५ " प्रतिष्ठा के मुहूर्त वाले दिन, स्नात्र प्रमुख सब विधि के हो जाने पर, जब लग्नसमय प्राप्त हुआ तब सर्वत्र मङ्गलध्वनि होने लगी । सब मनुष्य विकथा वगैरह का त्याग कर प्रसन्न मन वाले हुए । श्राद्धगण में भक्ति का अपूर्व उल्लास फैलने लगा । विकसित वदन और प्रफुल्लित नयन वाली स्त्रियें मंगलगीत गानें लगी। खूब जोर से वार्दित्र बजने लगे । हजारों भावुक लोग आनन्द और भक्ति के वश हो कर नृत्य करने लगे । सब मनुष्य एक ही दिशा में एक ही वस्तु तरफ निश्चल नेत्र से देखने लगे । अनेक जन हाथ में धूपदान ले कर धूप ऊडाने लगे । कुंकुम और कर्पूर का मेघ वर्षाने लगे । बन्दिजन अविश्रान्तरूप से बिरुदावली बोलने लगे । ऐसे मङ्गलमय समय में, भगवन्मूर्ति का जब दिव्य स्वरूप दिखाई देने लगा तब, कर्मा साह की प्रार्थना से और जैन प्रजा की कल्याणाकांक्षा से, राग-द्वेष विमुक्त हो कर श्रीविद्यामण्डनसूरि ने, समग्र सूरिवरों की अनुमति पा कर, शत्रुंजयतीर्थपति श्रीआदिनाथ भगवान् की मङ्गलकर प्रतिष्ठा की । उन के और और शिष्यों ने अन्य जो सब मूर्तियें थी उन की प्रतिष्ठा की। विद्यामण्डनसूरि बडे नम्र और लघुभाव को धारण करने वाले थे इस लिये ऐसा महान कार्य करने पर भी उन्हों ने कहीं पर अपना नाम नहीं खुदवाया* । प्रायः उनके बनाये हुए जितने स्तवन हैं उन में भी उन्हों ने अपना नाम नहीं लिखा । किसी भी मनुष्य को उस कल्याणप्रद समय में कष्ट का लेस For Private and Personal Use Only * प्रचीन कालसे यह प्रथा चली आ रही है, कि जो आचार्य जिस प्रतिमा की प्रतिष्ठा करता है उस पर उसका नाम लिखा जाता है । ९.
SR No.020705
Book TitleShatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1917
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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