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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शत्रुंजय पर्वत का परिचय । सेंकडों वर्षों से अनुपम आस्था रही हुई है। यही कारण है कि, अन्यान्य सेंकडों बडे बडे तीर्थों का नाम जैनप्रजा जब सर्वथा भूल गई है तब, अनेकानेक विपत्तियों के उपस्थित होने पर भी आज तक इस तीर्थ का वैसा ही गौरव बना हुआ है । परमार्हत महाराज कुमारपाल के समय; कि जब जैनप्रजा भारतवर्ष के प्रजागण में सर्वोच्च स्थान पर विराजित थी तब, जैसा इस तीर्थ पर द्रव्य व्यय कर रही थी वैसा ही आज भी कर रही है | मतलब यह कि देश पर अनेक विप्लव, अनेक अत्याचार, अनेक कष्ट और आपदायें आ जाने पर भी, कई वार म्लेच्छों द्वारा मंदिर और मूर्तियें नष्ट-भ्रष्ट किये जाने पर भी, यह तीर्थ जो वैसा का वैसा ही तैयार होता रहा है इस का कारण केवल जैनप्रजा की हार्दिक भक्ति ही है। जैनों ने इस तीर्थ पर जितना द्रव्य खर्च किया है उतना संसार के शायद ही किसी तीर्थ पर, किसी प्रजा ने किया होगा । अलेक्सान्डर फार्बस साहब ने रासमाला में, यथार्थ ही लिखा है कि- " हिन्दुस्थान में, चारों तरफ से — सिंधुनदी से लेकर पवित्र गंगानदी तक और हिमालय के हिम- मुकुटधारी शिखरों से तो उस की कन्या कुमारी, जो रुद्र के लिये अर्द्धांगना तया सर्जित हुई है, उस के भद्रासन पर्यंत के प्रदेश में एक भी नगर ऐसा न होगा जहां से एक या दूसरी बार शत्रुंजय पर्वत के शृंग को शोभित करनेवाले मंदिरों को द्रव्य की विपुल भेंटें न आई हों। " ( RAS - MALA) VOL, I. Page 6. ) " - For Private and Personal Use Only ११ इस तीर्थ में पूज्यबुद्धि रखने वाले जैनसमाज में ऐसे विरल ही मनुष्य मिलेंगे जो जीवन में एक बार भी इस तीर्थ की यात्रा न कर गये हों या न करना चाहते हों । हजारों मनुष्य तो ऐसे हैं जो वर्ष भर में कई दफे यहां हो जाते हैं। हिंदुस्तान में रेल्वे का प्रचार होने के पूर्व यात्रियों को दूरदेश की मुसाफिरी करनी इतनी सहज न थी
SR No.020705
Book TitleShatrunjay Mahatirthoddhar Prabandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherJain Atmanand Sabha
Publication Year1917
Total Pages118
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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