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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भंजसु इंदियसेणं भंजसु मणमक्कणं पयत्तेण । माजण रंजण करणं वाहिर वय वेसमाकुणसु ॥१०॥ भग्धि इन्द्रियसेनां भग्धि मनोमर्कटं प्रयत्नेन । मा जनरञ्जन करणं वाह्येबतवेश ? माकार्षीः ॥ अर्थ--भो मुने ? तुम स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु और कर्ण इन्द्रिय रूपी सेना को वश करो और मनरूपी बन्दर को प्रयत्न से ताड़ना करो वश करो, मो वाह्य ही व्रतो को धारण करने वालो अन्य लोकों के मन को प्रसन्न करने वाले कार्यों को मत धारण करो। णव णोकसायवग्गं मिच्छत्तंचय सुभाव सुद्धिए । चेइय पवयणगुरुणं करोहिं भत्तिं जिणाणाए ॥९॥ ___ नवनोकषाय वर्ग मिथ्यात्वं त्यज भावशुद्धये । चैत्य प्रवचन गुरूणां कुरु भक्तिं जिनाज्ञया । अर्थ--भो साधो ? तुम आत्मीक भावों को निर्मल करने के लिये हास्यादिक ९ नो कषायों के समूह को और ५ मिथ्यात्व को त्यागो, और जिन प्रतिमा, जैन शास्त्र और दिगम्बर साधु जिन आशानुसार इनकी भक्ति वन्दना पूजा वैयावृत्य करो। तित्थयर भासियत्थं गणहरदेबेहि गंथियं संम्म । भावहि अणुदिण अतुलं विसुद्ध भावेण सुयणाणं ॥२२॥ तीर्थकर माषितार्थ गणधरदेवैः ग्रन्थितं सम्यक् । __ मावय अनुदिनम् अतुलं विशुद्ध भावेन श्रुत ज्ञानम् ॥ अर्थ--उस अनुपम श्रुतज्ञान को तुम शुद्ध भाव कर निरन्तर भावो जिसमें श्री अर्हन्त देव का कहा हुवा अर्थ है और जिसको गणधर देवों ने रचा है पाऊण णाणसलिलं णिम्मइ तिसडाह सोसउम्मुक्का । होति सिवालयवासी तिहुवण चूडामणि सिद्धा ॥९॥ प्राप्य ज्ञानसलिलं निर्मथ्या तृषादाह शोषोन्मुक्ताः । भवन्ति शिवालय वासिनः त्रिभुवन चूडामणयः सिद्धाः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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