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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८१ ) विसयविरत्तो समणो छद्दसवरकारणाइ भाऊण । तित्थयरणामकम्मं बंधइ अइरेण कालेण ॥७९॥ विषयविरक्तः श्रमणः षोडशवर कारणानि भावयित्वा । तीर्थकरनाम कर्म बध्नाति अचिरेण कालेन ॥ अर्थ --मुनि विषयों से विरक्त सोलह कारण भावनाओं को भायकर थोड़े कालमें ही तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध करता है सोलहकारण भावना इस प्रकार हैं। दर्शनविशुद्धि १ विनय संपन्नता २ शीलबतेश्वनीतीचार ३ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग ४ संवेग ५ शक्तिस्त्याग ६ शक्तितस्तप ७ साधुसमाधि ८ वैयावृत्यकरण ९ अर्हद्भक्ति १० आचार्यभक्ति ११ बहुश्रुतभक्ति १२ प्रवचनभक्ति १३ आवश्यकापरिहाणि १४ मार्गप्रभावना १५ प्रवचनवत्सलत्व १६ । वारस विहतवयरणं तेरसकिरियाओ भाव तिविहेण । धरहि मण मत्त दुरियं णाणांकुसएण मुणियवरं ॥८०॥ द्वादशविध तपश्चरणं त्रयोदश क्रियाः भावय त्रिविधेन । धारय मनोमत्तदुरितं ज्ञानाङ्कुशेन मुनिवर ॥ अर्थ-भो मुनिवर ? तुम वारह प्रकार के तपश्चरणको और तेरह प्रकार की क्रियाओं को मन वचन और काय कर धारण करो और मन रूपी पापिष्ट हस्ती को शानरूपी अंकुश कर बश करो। पांच महाव्रत, पांच समिति, और तीन गुप्ति यह १३ प्रकार की क्रिया हैं। पञ्चविहचेलचायं खिदिसयणं दुविह संजमं भिक्खं । भावं भाविय पुव्वं जिणलिङ्गं णिम्पलं सुद्धं ॥८॥ पञ्चविधचेल त्यागः क्षितिशयनं द्विविध संयमं मिक्षा। भाव भावितपूर्व जिनलिङ्ग निर्मलं शुद्धम् ॥ अर्थ-जिसमें पांचों प्रकार के अर्थात् रेशम, रूई, ऊन, छाल चमड़ा, आदिक सब प्रकार के वस्त्रों का त्याग है, पृथिवी पर शयन For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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