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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७५ ) येही ज्ञानादिक मेरे स्वरूप हैं। अन्य स्वरूप मैं नहीं हूं और न अन्य मेरा स्वरूप है । एगो मे सास्सदोअप्पा णाणं दंसण लक्खणो । सेसा मे वाहिराभावा सव्वे संजोगलक्खणा ।। ५९ ।। एको मे शास्वत आत्मा ज्ञानदर्शन लक्षणः । शेषा मे वाह्या भावा सर्वे संयोग लक्षणाः ॥ अर्थ - भावलिङ्गी मुनि विचार करते हैं कि मेरा आत्मा एक है शास्वता है और ज्ञानदर्शन ही उसका लक्षण है । रागद्वेषादिक अन्य समस्तही संयोग लक्षण वाले भाव वाह्य हैं । भावेह भाव सुद्धं अप्पासुविसुद्ध णिम्मलं चैत्र । लहु चउगइ चइऊणं जइ इच्छह सासयं सुक्खं ॥ ६० ॥ भावयत भावशुद्धं आत्मानं सुविशुद्धं निर्मलं चैव । लघु चतुर्गतिं त्यक्त्वा यदि इच्छत शास्वतं सुखम् || अर्थ-भो मुनीश्वरो ? जो आप यह बांछा करते हो कि शीघ्र ही चारों गतिओं को छोड़कर अविनाशी सुख को प्राप्त करो तो भाव शुद्ध करके जैसे तैसे कर्ममल रहित निर्मल आत्मा को भावो चिन्तवो ध्यावो । जो जीवो भावतो जीव सहावं सुभाव संजुत्तो । सो जर मरण विणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ॥ ६१ ॥ यो जीवो भावयन् जीवस्वभावं सुभावसंयुक्तः । स जन्म मरण विनाशं करोति स्फुटं लभते निर्वानम् ॥ अर्थ - जो भव्य जीव शुद्ध भाव सहित आत्मा के स्वभावों को भावे है वह ही जन्म मरण का विनाश करे है और अवश्य निर्वाण को पावै है । जीवो जिणपण्णत्तो णाण सहाभोय चेयणा सहिओ । सो जीवो णायव्त्रो कम्मक्खय कारण निमित्ते ॥ ६२ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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