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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६६ ) तेयाला तिष्णसया रज्जुणं लोय खेत्त परिमाणं । मुत्तूण पएसा जच्छ ण टुरुदुल्लिओ जीवो || ३६॥ ॐ त्रिचत्वारिंशत्त्रिशत रज्जूनां लोक क्षेत्र प्रमाणं । मुक्काऽष्टौ प्रदेशान् यत्र न भ्रमितः जीवः ॥ अर्थ-तीन से तेतालीसराजु घनाकार लोकाकाश का प्रमाण है जिस के मध्यवर्ती आठ प्रदेशों को छोड़ कर अन्य सर्व प्रदेशों में यह जीव भ्रमा है अर्थात् जन्म और मरण किये हैं । एकेकंगुलवाही छण्णवदि हुंति जाण मणुयाणं । अवसेय सरीरे रोया भणि केत्तिया भणिया ||३७|| एकैकाङ्गुलौ व्याधयः षण्णवतिः भवन्ति जानीहि मनुष्यानाम् । अवशेषे च शरीरे रोगा भण कियन्तो भणिताः ॥ अर्थ - मनुष्य के शरीर विषे एक अङ्गुल स्थान में छयानवे ९६ रोग होते हैं तो कहिये समस्त शरीर में कितने रोग हैं ? जब एक अगुल में ९६ रोग हैं तो समस्त मनुष्य शरीर में कितने ऐसा पैरासिक करे और फिर समस्त शरीर की लम्बाई चौड़ाई उंचाई नाप कर पोल (शून्यस्थानों ) को घटाय घनफल निकाले उसको ९६ से गुणा कर जो संख्या आवे तितने रोग इस मनुष्य शरीर में हैं । ते रोया वियसयका सहिया ते परवसेण पुव्वभवे । एवं सहसि महाजस किंवा वहुएहिं लविएहिं ॥३८॥ ते रोगा अपिच सकला सोढा त्वया परवशेन पूर्वभवे । एवं सहसे महाशयः किंवा वहुभिः लपितैः ॥ ? अर्थ-वे पूर्वोक्त सर्वही रोग पूर्व भवों में कर्मों के आधीन 'होकर तुमने सहे अव अनुभव (विचार) करो बहुत कहने कर क्या पिनंत मृत्त फेफस कालिज्जय रुहिर खरिस किमिजाळे । उयरे वसिसि चिरं णवदश मासेहिं पत्तेहिं ॥ ३९ ॥ • पित्तान्त्रमूत्र फेफस कालिज रुधिर खरिस ऋमिजाले । उदरे वसितोसि चिरं नवदश मासे पूर्णैः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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