SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ४२ ) मतिर्धनुर्यस्यस्थिरं श्रतगुणं वाणः सुअस्तिरत्नत्रयम् । परमार्थ वद्धलक्ष्यः नापि स्स्वलति मोक्षमार्गस्य ॥ अर्थ -- जिस मुनि के पास मति ज्ञान रूपी स्थिर धनुष है जिस परश्रुत ज्ञान का प्रत्यञ्चा है, रत्नत्रय रूपी उत्तम वाण (तीर) जिस पर चढ़ा हुवा है जिसने परमार्थ को लक्ष्य अर्थात निशाना बनाया हुवा है वह मुनि मोक्ष मार्ग से नहीं चूकता है । भावार्थ - जो मति शानी शास्त्रों का अभ्यास करता हुआ रत्न श्रय संयुक्त होकर परमार्थ को खोजता है वह मोक्षमार्ग से नहीं डिगता है। सो देवो जो अत्थं धम्मं कामं सुदेइ णांणं च । सो देइ जस्स अच्छिदु अच्छो धम्मोयपवज्जा ||२४|| स देवो योऽर्थं धर्मं कामं सुददाति ज्ञानं च । स ददाति यस्य अस्तितु अर्थः धर्मश्च प्रवृज्या || अर्थ - धन धर्म, काम और ज्ञान अर्थात् केवल ज्ञान रूपी मोक्ष को जो देवै सोहादेव है । जिस के पास धन धर्म ओर प्रवृज्या अर्थात् दीक्षा हो वही दे सक्ता है । धम्र्मोदया विसुद्ध पवज्जा सव्व संग परिचत्ता । देवोaarयमोहो उदयकरो भव्व जीवाणं || २५ ॥ धर्मोदय विशुद्धः प्रवृज्या सर्वसंगपरित्यक्ता । देवो व्यपगत मोहः उदयकरो भव्यजीवानाम् ॥ अर्थ — जो दया करके विशुद्ध है वह धर्म है, समस्त परिग्रह से रहित है वह देव है वही भव्य जीवों के उदय को प्रकट करने वाला है । बय सम्मत विसृद्धे पंचेंदिय संजदेणिरावेक्खे | हाएओ मुणितिच्छे दिक्खासिक्खासु णहाणेण ॥ २३ ॥ व्रतसम्यकत्व विशुद्धे पञ्चेन्द्रियसंयते निरपक्षे | स्नातु मुनिः तीथ दीक्षाशिक्षासुस्नानेन ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy