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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) गमन रूप गति से चरमशरीर से किंचिन्यून आकार को प्राप्त हुवे हैं, मुक्त स्थान में स्थित हैं, खगासन वा पद्मासन अवस्थित हैं। ____ अर्थात्-जिस आसन से मुक्त हुवे हैं उसी आकार हैं। ऐसी प्रतिमा जो सदा इसही प्रकार ध्रुव रहती है बन्दने योग्य है। दंसेइ मोक्खपगं संमत्तं संयम सुधम्मं च । णिग्गंथं णाणमयं जिणमग्गे दंसणं भणियं ॥१४॥ दर्शयति मोक्षमार्ग सम्यकत्वं संयम सुधर्म च । निर्गन्धं ज्ञानमयं जिनमार्गे दर्शनं भणितम् ॥ अर्थ-निग्रंथ और शानमई मोक्षमार्गको, सम्यक्त्व को, संयम को, आत्मा के निज धर्म को जो दिखाता है उसको जैन शास्त्र में दर्शन कहा है। जहफुल्लं गंधमयं भवदिहु खीरं सघिय मयं चावि । तह दंसम्मि सम्मं णाणमयं होई रूवच्छं ।।१५।। यथा पुष्पं गन्धमयं भवति स्फुटं क्षीरं तद्धृतमयं चापि । तथा दर्शने सम्यकत्वं ज्ञानमयं भवति रूपस्थम् ॥ अर्थ-जैसे फूल गन्ध वाला है दूध घृत वाला है तैसे ही दर्शन सम्यक्त्व वाला है । वह सम्यकत्व अन्तरङ्ग तो ज्ञानमय है और वाह्य सम्यगदृष्टि श्रावक और मुनि के रूप में स्थित है। जिणविणाणपयं संजमसुद्धं सुवीयराय च। जं देइ दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सुद्धा ॥१६॥ जिनविम्बं ज्ञानमयं संयमशुद्धं सुवीतरागं च । य ददाति दीक्षा शिक्षा कर्मक्षय कारणे शुद्धाः । अर्थ-जो ज्ञानमय हैं, संयम में शुद्ध हैं अत्यन्त वीतराग हैं, और कर्मों के क्षय करने वाली शुद्ध दीक्षा और शीक्षा देते हैं वह आचार्य परमेष्ठी जिन विम्व हैं । अर्थात जिनेन्द्रदेव के प्रतिबिम्ब ( सादृश्य ) हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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