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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३५ ) ४ चौथा बोध प्राभृतम् । बहुसच्छअच्छजाणे संजमसम्पतसुद्धतवयरणे । बन्दिताआरिए कसायमल वज्जिदेसुद्धे ॥ १ ॥ सयलजणवोहणस्थं जिणमग्गो जिणवरे हिंजह भणियं । बुच्छामिसमासेणय छक्कायसुहंकरं सुणसु ॥ २ ॥ बहुशास्त्रार्थज्ञायकान् संयमसम्यक्त्वशुद्धतपश्चरणान् । वन्दित्वाऽऽचार्यान् कषायमलवर्जितान् शुद्धान् ॥ सकलजनबोधनार्थं जिनमार्गे जिनवरैर्यथा मणितम् । वक्ष्यामिसमासेन च षटकाय सुहंकरं शृणु ॥ अर्थ- अनेक शास्त्रों के अर्थों के जानने वाले, संयम और सम्यग दर्शन से शुद्ध है तपश्चरण जिनका, कषाय रूपी मल से रहित और शुद्ध ऐसे आचार्य परमेष्ठी की बन्दना (स्तुति) करके बोध पाहुड़ को संक्षेप से वर्णन करता हूँ जैसा कि षटकाय के जीवों को हितकारी जिनेन्द्रदेव ने जैन शास्त्रों में समस्त जनों के बोध के अर्थ वर्णन किया है, तिस को तुम श्रवण करो । आयदणं चैदिहरं जिणमडिमा दंसणं च जिणविवं । भणियं सुवीयरायं जिणमुद्दाणाणमादच्छं ॥ ३ ॥ अरहंतेणसुदिनं जंदेवं तिच्छामहय अरिहन्तं । पाविज्जगुणविसुखा इयणायव्वाजहाकमसो ॥ ४ ॥ आयतनं चैत्यगृहं जिनप्रतिमादर्शनं च जिनबिम्बम् । भणितं सुवीतरागं जिनमुद्रा ज्ञानमत्मस्थम् ॥ अर्हता सुदृष्टयदेवः तीर्थमिह च अर्हनन्तम् । प्रवज्यागुणविशुद्धा इति ज्ञातव्या यथाक्रमशः ॥ अर्थ - इस बोध पाहुड़ में इन ११ स्थलों से वर्णन किया जाता है मायतन १ चैत्यग्रह २ जिन प्रतिमा ३ दर्शन ४ उत्तम वीतरागस्वरूप For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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