SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २१ ) ३ चारित्र पाहुड़। सव्वण्ह सव्वदंसी णिम्मोहा वीयराय परमेट्ठी । वन्दि तु तिजगवन्दा अरहंता भव्व जीवेहिं ॥ १॥ णाणं देसण सम्म चारित्रं सो हि कारणं ते सिं । मुक्खा राहण हेउ चारित्रं पहुडं वोच्छे ॥ २ ॥ सर्वज्ञान् सर्वदर्शिनः निर्मोहान् वीतरागान् परमेष्ठिनः । वन्दित्वा त्रिजगद्दन्दितान् अर्हतः भव्यजीवैः ॥ ज्ञानं दर्शन सम्यक् चरित्रं स्वं हि कारणं तेषाम् । मोक्षा राधन हेतु चारित्रं प्राभृतं वक्ष्ये ॥ अर्थ-सर्वज्ञ सर्वदर्शी निर्मोही वीतराग परमेष्ठी तीन जगत के प्राणियों का वन्दनीय और भव्य जीवों का मान्य ऐसे अरिहंत देव को वन्दना करके चारित्र पाहुड़ को कहता हूं। कैसा है वह चारित्र ! आत्मीक स्वभाष जो सम्यगदर्शन सम्यगज्ञान और सम्यक् चारित्र उनके प्रकट करने का कारण और मोक्ष के आराधन करने का साक्षात हेतु है । जं जाणइ तं णाणं जं पिच्छइ तं च दंसणं भणियं । णाणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ चारित्तं ॥ ३ ॥ यद् जानाति तद् ज्ञानं यत्पश्यति तच्च दर्शनं भणितं । . ज्ञानस्य दर्शनस्य च समापन्नात् भवति चरित्रम् ॥ अर्थ-जो जाने सो ज्ञान और जो ( सामान्यपने ) देखे सो दर्शन ऐसा कहा है ॥ ज्ञान और दर्शन इन दोनों के समायोग होने से चारित्र होता है। एए ति एहविभावा हवन्ति जीवस्स अक्खयामेया। तिण्णापि सोहणत्थे जिण भणियं दुविह चारित्तं ॥४॥ : एते त्रयोपि मावा मवन्ति जीवस्य अक्षया अमेयाः। त्रयाणामपि शोधनार्थ जिन माणितं द्विविध चारित्रम् ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy