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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( १३ ) पुरुसोवि जो समुत्तो ण विणासर सो गयबि संसारे । सच्चेयण पच्चक्खं णासदितं सो अदिस्स माणोवि ॥ ४ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुरुषोपि यः ससूत्रः न विनश्यति स गतोपि संसारे । सचेतना प्रत्यक्षं नाशयति तंसः अदृश्यमानोपि ॥ - अर्थ -जो पुरुष सूत्र सहित है अर्थात् सूत्रों का ज्ञाता है वह संसार मे फँसा हुवा भी अर्थात ग्रहस्थ में रहता हुवा भी नष्ट नहीं होता है वह अप्रसिद्ध है अर्थात चारो संघ में से किसी संघ में नहीं है तो भी वह आत्मा को प्रत्यक्ष करता हुवा अर्थात आत्म अनुभवन करता हुवा संसार का नाश ही करता है । सूत्तत्थं जिण भणियं जीवाजीवादि बहुविहंअत्थं । हेयायं चतहा जो जाणइ सोहु सुद्दिट्ठी ।। ५ । सूत्रार्थं निमणितं जीवा जीवादि बहु विधमर्थम् । हेयाहेयं चतथा योजानाति सस्फुटं सद्दृष्टिः || अर्थ - जो सूत्र का अर्थ है वह जिनेन्द्र देव का कहा हुवा है । वह अर्थ जीव अजीव आदिक बहुत प्रकार का है उस अर्थ को और हेय अर्थात् त्यागने योग्य और अहेय अर्थात ग्रहण करने योग्य को जो कोई जानता है वह ही सम्यग दृष्टि है । जंसूतं जिण उत्तं ववहारो तहय परमत्थो । तं जाणऊणजोई लहइ सुहं खवइ मल पुंजं ॥ ६ ॥ यत् सूत्रं जिनोक्तं व्यवहारं तथाच परमार्थम् । तत् ज्ञात्वायोगी लभते सुखं शयति मलपुञ्जम् || अर्थ – जो जिनेन्द्र मापित सूत्र हैं वह व्यवहार रूप और - परमार्थ रूप हैं, उनको जान कर योगीश्वर सुख को पाते हैं और मल पुंज अर्थात कर्मों को क्षय करते हैं । सूतत्थ पयविणो मिध्यादिट्ठी मुणेयव्वो । खेडेविण कायं पाणियपत्तं सचलेस्सं ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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