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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावार्थ-जो तीर्थकर परम देव हैं उनको मैं बन्दना करता हूं। णाणेण दंसणेण य तवेण चरियेण संयमगुणेण । चरहिंपि समाजोगे मोक्खो जिणसासणेदिहो ॥३०॥ ज्ञानेन दर्शनेन तपसा चारित्रेण संयम गुणेन । चतुर्णामपि समायोगे मोक्षा जिनशाप्तने उद्दिष्टः । अर्थ-शान, दर्शन, तप, और चारित्र इन चारों के इकट्ठा होने पर संयम गुण होता है उसही से मोक्ष होती है, ऐसा जिन शासन में कहा है। णाणं णरस्ससारं सारावि परस्सहोइ सम्मत्तं । सम्मत्ताओ चरणं चरणाओ होइ णिवाणं ॥३॥ ज्ञानं नरस्य सारं सारोपि नरस्य भवति सम्यक्त्वम् । सम्यक्त्वतः चरणं चरणतो भवति निर्वाणम् ॥ अर्थ-यद्यपि पुरुष के वास्ते झान सार वस्तु है परन्तु मनुष्य के वास्ते सम्यक्त्व उस से भी अधिक सार है क्योंकि सम्यक्त्व से ही चारित्र होता है और सम्यक् चारित्र से ही मोक्ष प्राप्त होता है। णाणम्मि दंसम्मिय तवेण चरिएण सम्म सहिएण । चोकंपिसमाजोगे सिद्धा जीव ण संदेहो ॥३२॥ ज्ञाने दर्शने च तपसा चारित्रेण सम्यक्त्वहितेन । चतुष्कानां समायोगे सिद्धा जीवा न सन्देहः ।। अर्थ-सम्यक्त्व सहित मान दर्शन तप और चारित्र इन चारों के संयोग होने पर जीव अवश्य सिद्ध होता है इस में सन्देह नहीं है। कल्लाण परंपरया लहंति जीवा विशुद्ध सम्मत्तं । सम्मइंसण रयणं अञ्चेदि सुरासुरे लोए ॥३।। कल्याण परम्परया लभन्ते जीवा विशुद्ध सम्यक्त्वम् । सम्यग्दर्शनरत्नम् अय॑ते सुरासुरे लोके ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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