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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir <) अर्थ-दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, और विनय में जो कोई सदा काल लवलीन हैं और गणधरों का गुणानुवाद करनेवाले हैं वह ही बन्दने योग्य है 1 सहजुप्पण्णं रूवं दिट्ठं जो मरण्णए णमच्छरिऊ | सो संजम पडिपण्णो मिच्छा इट्ठी हवइ एसो ॥ २४ ॥ सहजोत्पन्नं रूपं दृष्ट्वा यो मनुते नमत्सरी । स संयम प्रतिपन्नः मिथ्या दृष्टि र्भवति असौ ॥ अर्थ – जो पुरुष यथा जात अर्थात् जन्मते हुए बालक के समान नन दिगम्बर रूप को देख कर मत्सर भाव से अर्थात् उत्तम कार्यों से द्वेष बुद्धि करके उनको नहीं मानता है अर्थात् दिगम्बर मुनि को नमस्कार नहीं करता है वह यदि संयमधारी भी है तो भी मिथ्या दृष्टि ही है । अमराणं वन्दियाणं रूवं ददृणसील सहियाण || जो गारवं करन्ति य सम्मत्तं विविज्जिया होति ।। २५ ।। अमरैः वन्दितानां रूपं दृष्ट्वाशील सहितानाम् । यो गरिमाणं कुर्वन्ति च सम्यक्तं विवर्जिता भवन्ति ॥ अर्थ - देव जिन की बन्दना करते हैं और जो शील व्रतों को धारण करते हैं, ऐसे दिगम्बर साधुओं के सरूप को देखकर जो अभिमान करते हैं अर्थात् शेखी में आकर उन को नमस्कार नहीं करते हैं वह सम्यक्त रहित हैं । असंजदं ण वंन्द वच्छविहीणोवि सोण वन्दिज्जो । दोण्णिव होंति समाणा एगोवि ण संजदो होदि ॥ २६ ॥ असंयतं न बन्दे वस्त्रविहीनोऽपि स न वन्द्यः । द्वावपि भवतः समानौ एकोऽपि नसंयतो भवति ॥ अर्थ -- चरित्र रहित असंयमी बन्दने योग्य नहीं है, और For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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