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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्राणिवधेहि महायशः चतुरशीति लक्षयोनिमध्ये । उत्पद्यमानो म्रियमाणः प्राप्तोसि निरन्तरं दुःखम् ।। अर्थ-हे महायशसी तुम प्राणि हिंसा के निमित्त से चौरासी लाख योनियों में उपजते मरते हुए निरन्तर दुःखों को प्राप्त हुए हो। जीवाणमभयदाणं देहि मुणी पाणि भूदसत्ताणं । कल्लाण मुह णिमित्तं परम्परा तिविह सुदाए ॥ १३६ ।। जीवानामभयदानं देहि मुने प्राणिभूतसत्वानाम् । कल्याणसुखनिमित्तं परम्परात्रिविधसुद्ध्या ।। अर्थ-भो मुने ? तुम सर्व जीवों को मन बचन काय की शुद्धि से अभय दान देवो ऐसा करना क्रम से तीर्थकर सम्बन्धी पक्ष कल्याणों के सुख का निमित्त है। असिय सयं करिय वाई अकिरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तही अण्णाणी वैणइया होन्ति वीसा ॥ १३७॥ अशीति शतं क्रियावादिनामक्रियाणां च भवति च चतुरशीतिः। सप्तषष्टिरज्ञानिनां वैनयिकानां भवन्ति द्वात्रिंशत् ॥ अर्थ-मिथ्यात्व दो प्रकार है ग्रहीत और अग्रहीत । ग्रहीत के ४ भेद हैं, क्रियावादी १ अक्रियावादी २ अशानी और वैनेयिक ४ तिनके भी क्रमसे १८०८४६७ और ३२ भेद हैं यह सर्व ३६३ पाखण्ड ग्रहीत मिथ्यात्व है । और जो मिथ्यात्व अनादि काल से जीव को लगा हुवा है वह अग्रहीत है णमुयइ पयडि अभव्यो सुठुवि आयण्णिऊण जिणधम्म । गुणदुदंविपिवंता णपण्णया णिव्विसा होन्ति ॥ १३८ ॥ न मुञ्चति प्रकृतिमभव्यः सुष्टुअपि आकर्ण्य जिनधर्मम् । गुडदुग्धमपि पिवन्तः न पन्नगा निर्विषा भवन्ति ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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