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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ९७ ) तित्थयरगणहराई अब्भुदय परं पराई सुक्खाई। पावंति भावसहिआ संखे च जिणेहिं वज्जारयं ॥ १२८॥ तीर्थ करगणधरादीनि अभ्युदय परम्पराय सुखानि । प्राप्नुवन्ति भावसहिताः संक्षेपः जिनैः उच्चरितः ॥ अर्थ-भाव लिङ्गी मुनि ही तीर्थंकर गणधर आदि अभ्युदय की परम्परा के सुखौ को पाता है ऐसा संक्षेप रूप वर्णन जिनेन्द्रदेव ने कहा है। ते धण्णा ताणं णमो दंसण वरणाण चरणमुद्धाणं । भाव सहियाण णिचं तिविहेणय णहमायाणं ।। १२९ ।। ते धन्या तेभ्योनमः दर्शनवरज्ञान चरणशुद्धेभ्यः । ___ भाव सहितेभ्योनित्यं त्रिविधेन च नष्ट मायेभ्यः ॥ अर्थ-वे ही धन्य हैं उन्हीं को मन बचन काय से हमारा नमस्कार होवे जो दर्शन ज्ञान और चारित्र में शुद्ध हैं, भाव लिङ्गी हैं और मायाचार रहित हैं। रिद्धि मतुला विउव्विय किंणर कुिंपुरुसअमरखयरेहिं । तेहिं विण जाइ मोहं जिण भावण भाविओ धीरो ॥१३०॥ ऋद्धि मतुलां विकृतां किंनरकिम्पुरुषामर खचरैः ।। तैरपि नयाति मोहं जिनभावनामावितो धीरः ॥ अर्थ-जिनेन्द्र भावना अर्थात् सम्यक्त्व भावना में बसे हुए धीर पुरुष, किन्नर किंपुरुष कल्पबासी और विद्याधरों की विक्रिया रूप बिस्तारी हुई अनुपम ऋद्धि को देखि मोहित नहीं होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष इन्द्रादिको की विभूति को नहीं बांधे हैं। किं पुण गच्छइ मोहं परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं । जाणन्तो पस्सन्तो चिन्तन्तो मोक्खमुणिधवलो ॥ १३१ ॥ किं पुनः गच्छति मोहं नरमुरसुखानामल्पसाराणाम् । जानन् पश्यन् चिन्तयन् मोक्ष मुनिधवलः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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