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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पष्टिशतक प्रकरण-॥ ॥ १२२॥ भाषानुवादः Aसकस धर्म पर्व संवत्सरी, चतुर्मासी आदेय ॥थाप्या जेणे जयतु ते, पापी सुमति धरेय ॥ २६ ॥ पाप पर्व जेणे रच्या, अशुभ नाम पण तास ॥ धर्मीने पण जेहथी, पाप मतोनो वास ॥ २७ ॥ ज्हेवे संगे जेहवो, ते नर मध्यम होय ॥ अति धर्मी अति पातकी, ते तो फिरे न कोय ॥ २८ ॥ अतिशय पापी पापरत, रहे सुपर्वे जेम ॥ पाप कुप। धर्मथी, धन्य चलै नही तेम ॥ २९ ॥ लक्ष्मो दोविध एक तो, नर गुण धण क्षयकार ।। एक दीपावे पुरुषकू, पाप पुन्य अनुसार ॥ ३० ॥ भार थपा गुरु श्राद्धने, स्तकी लेत दानादि ॥ तत्व अजाण दए बुडे, दुसस्म समए प्रादि ॥१॥ मिच्छ प्रवाहे रत घणा, लोक स्तोक सबुद्ध ॥ गारविरस लंपट गुरु, गोपै धर्म विशुद्ध ॥ ३२ ॥ अरिह देव सुगुरू गुरू, नाम मात्र सवि कहत ॥ ताके सुभग मुरूपकू, पुन्यहीण नहि लहत ॥३३॥ शुर जिनाजा रत हुवे, के खलने शिल मूल ॥ जेने ते शिरसूल फुन, ते गुरु सठ अनुकल ॥३४॥ गुरु अकार्य हानहि घणी, करिये कहा पुकार ॥ सुगुरु श्राद्ध जिन वचन कह, कहा अकार्य असार ॥३५॥ साप देख नासे कुई, लोक कहै कछु नाहै, कुगुरु सापथी जे नसे, मूढ कहै खल ताहि ॥३६॥ एक मरणकं साप दे, कुगुरु मरण अनंत ॥श्रेष्ट साप ग्रहवं तदा, कुगुरु सेव नहि संत ॥ ३७॥ जिण आज्ञाथी रहितने, गुरुकहि जो शिर नाय ॥ गडर प्रवाहे जण छल्यो, तो मुं करिये भाय ॥ ३८॥ लोक अदाक्षणि कोइ जो, मागे स्टीया भाग । कुगुरु संगत्यागन विषे, दाक्षणता धिग राग ॥ ३९ ॥ 5 ॥१२२॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020698
Book TitleShashti Shatak Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManvijay
PublisherSatyavijay Jain Granthmala
Publication Year1924
Total Pages282
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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