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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३ ) ही ! संसारसहाव - चरियं नेहाणुरायरत्ता वि । जे पुण्छे दिट्ठा, ते अवरण्हे न दीसन्ति ॥ ४॥ संसारना स्वभावनुं अतिकारमुं चरित्र देखी खरेखर खेद थायछे - दिलगीरी उपजेछे, कारण के - स्नेहना अनुरागे आसक्त अने प्रीतिथी परिपूर्ण एवा माता पिता बांधव स्त्री विगेरे संबंधीओ के जेओने पहेले पहोरे सुखशान्तिमां देख्या हता तेओ पाछले पहोरे देखाता नथी !, संसारनो आवो भयङ्कर स्वभाव देखीने पण मुग्ध जीवो मां ज आसक्ति राखेछे ते शोचनीय छे. ॥ ४ ॥ मा सुयह जग्गियचे, पलाइयवम्मि कीस विसमेह ? | तिन्निजणा अणुलग्गा, रोगो अजरा अ मच्चू अ ॥५॥ हे जीवो ! जागवाने ठेकाणे सूइ न रहो-धर्म कृत्यमां प्रमाद न करो, कारणके काळरूपी पारधि तमारी पछवाडे पड्यो छे जे अणचिन्तव्यो तमारो विनाश करी दुर्लभ मनुष्यभव निष्फल करी नाखशे. वळी, ज्यांथी पलायन करी जवुं जोइए त्यां विसामो खावा केम बेठा छो ?, I * ही संसारस्वभावचरितं स्नेहानुरागरक्ता अपि । ये पूर्वाह्णे दृष्टास्तेऽप - राहे न दृश्यन्ते ॥ ४ ॥ + मा स्वपित जागरितव्ये पलायितव्ये कस्माद् विश्राम्यथ ? । त्रयो जना अनुलमा रोगश्च जरा च मृत्युश्च ॥ ५ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020692
Book TitleSartham Bhavvairagya Shatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA M and Company
PublisherA M and Company
Publication Year1918
Total Pages75
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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