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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वस्सी य विरुवो, सुहभागी दुक्खभागी य ॥१८॥ आ जीव कोइ वखत देव थयो, कोइ वखत नारकी थयो, कोइ वखत तिथंचगतिमां कीट-पतङ्ग थयो, ज्यारे कोइ वखत मनुष्य बन्यो. वळी कोइ वखत स्वरूपवान् थयो, अने कोइ वखत कुरूपी थयो. वळी कोइ वखत सुखीयो, अने कोइ वखत दुःखी थइ उदासीन बन्यो. आवी रीते आ संसाररूप नाटकशाळामां नाटकीयानी पेठे भिन्न भिन्न वेशमां उतरी भिन्न भिन्न भाव धारण कर्या, पण हजु सुधी अविनाशी अने स्थिर आत्मरूप पाम्यो नहीं. माटे हे आत्मा ! ए सर्व वेश अने भावोने विनश्वर अने असत्य जाणी शुद्ध आत्मरमण पामवाने राग-द्वेषनी परिणति दूर कर, के जेथी तेवा वेष धारण करी कलुषित थq न पडे. ॥ ५८ ॥ राउत्ति य दमगुत्तिय, एस सवागुत्ति एस वेयविऊ । सामी दासो पुजो, खलोत्ति अधणो धणवइत्ति ॥९॥ * रूपी च विरूपः, सुखभागी दुःखभागी च ॥ ५८ ॥ + राजेति च द्रमक इति च, एष श्वपाक इति एष वेदवित् । खामी दासः पूज्यः, खल इति अधनो धनपतिरिति ॥ ५९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020692
Book TitleSartham Bhavvairagya Shatakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA M and Company
PublisherA M and Company
Publication Year1918
Total Pages75
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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