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श्रीस्थानागपत्र सानुवाद ॥१०३॥
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मरण पामीने त्रसना मां ज उत्पन्न थाय छे तेनी अपेक्षाए आ हकीकत जाणवी. अन्यथा-बीजी रीते त्रण समय पर्यत २ स्थानकाअनाहारक होय छे. (५), उच्छ्वासदंडकमां जे श्वासोच्छ्वास ले छे ते उच्छ्वासको, ते उच्छ्वासपर्याप्तिवडे पर्याप्तको अने तेथी भिन्न ध्ययने उच्छ्वासपर्याप्तिवडे अपर्याप्तको ते नोच्चासको (६), इंद्रियदंडकमां इंद्रियपर्याप्तिवडे पर्याप्तको ते सेंद्रियो अने इंद्रियपर्याप्तिवडे उद्देशः२ अपर्याप्ता ते अनिंद्रियो (७), पर्याप्सदंडकमा पर्याप्तनामकर्मना उदयथी पर्याप्ता छे अने अपर्याप्तनामकर्मना उदयथी अपर्याप्ता छे.
नारकाणां (८), संज्ञीदंडकमां मनपर्याप्तिवडे पर्याप्तको ते संज्ञी-संज्ञावाळा अने मनपर्याप्तिवडे अपर्याप्तको ते असंज्ञी छे. 'एवं पंचिंदिए'
भव्यत्वादि त्यादि० एटले के जेम नारको संज्ञी अने असंबीना भेदवडे कहेला छे तेम, 'एवं विगलोंद्रयवज' त्ति विकल-अपरिपूर्ण
त्ति विकल-अपरिपूर्ण ४७९ सूत्रम् संख्याविशिष्ट इंद्रियो छे जेओने ते विकलेंद्रियोने (पृथ्वी वगेरे, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय अने चतुरिद्रियो ) वर्जीने चोवीश दंडकमा | जे बीजा पंचेंद्रियो असुर विगेरे होय छे ते सर्वने संज्ञी अने असंज्ञीपणाए कहेवा, अर्थात् छेल्लं दंडक-' जाव वेमाणिय 'त्ति. यावत् वैमानिक दंडक पर्यंत पण एवी रीते ज कहेवा. कोई प्रतमा 'जाव वाणवंतरिय 'त्ति.
१. सामान्य जीवनी अपेक्षाए आ कथन छे. २ आ व्याख्या सामान्य प्रकारे छे, कारण के अपर्याप्तनामकर्मना उदयबाळा ( लब्धिअपर्याप्तक) नारक अने देवमां संभवे नहिं अने प्रस्तुत सूत्रमा 'जाव वेमाणिया । कहेल छे, माटे अहि एम जणाय छे के जे जीवोए स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करेल नथी एवा करणअपर्याप्त जीवोनी अपेक्षाए नारक अने देवो अपर्याप्त होय छे. अथवा करणअपर्याप्तिकालमां पण अपर्याप्तनामकर्मनो उदय होय एम संभवे छे.
॥१०३॥
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