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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७७१ ॥ जघन्यकरि ए सर्व सौधर्मकल्पविर्षे दोय सागरकी स्थिति पात्र हैं। मध्यके नानाभेद यथासंभव जानने । बहुरि स्नातक निर्वाणप्राप्तही होय है | बहुरि स्थान कहिये संयमकी लब्धिके स्थानतें कषायका तीव्रमंदपणा है सो है निमित्त | जिनकू ऐसे असंख्यात हैं। तहां सर्वजघन्य संयमस्थान पुलाक कषायकुशील इन दोऊनिकै | समान होय ते असंख्यातस्थानताई साथी रहें, पीछे पुलाकका व्युच्छेद है। याके अगिले स्थान नाहीं अर अगिले स्थान असंख्यात एक कपायकुशीलकही होय अन्यकै ते स्थान नाहीं। बहुरि आगें कषाय| कुशील प्रतिसेवनाकुशील दोऊ असंख्यातस्थानताई लार रहै हैं । दोऊनिके समानस्थान होय है । पीछे प्रतिसेवनाकुशीलका व्युच्छेद है। अगिले स्थान याकै होय नाहीं। आगे असंख्यातस्थान | कषायकुशीलकैही होय। ऐसेंही पीछे कषायकुशीलका व्युच्छेद है। यातें उपरि कषायराहत स्थान हैं | ते निग्रंथकही हैं । तेभी स्थान असंख्यात हैं । पीछे निग्रंथकाभी व्युच्छेद है । आगें एक स्थान || है, सो ताकू पायकरि स्नातक केवली निर्वाणकू प्राप्त होय है । ऐसें ए संयमस्थान हैं । सो अवि. भागप्रतिच्छेदनिकी अपेक्षा स्थानस्थानप्रति अनंतका गुणाकार है । ऐसें नवमां अध्यायमें संवर | निर्जराका स्वरूप अर तिनके कारणके भेद स्वरूप, अनेकप्रकार गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षा परि- | Acertaircreasraliasoritereerasacreristics For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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