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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय | पान ७६८ ॥ वर्ते हैं, बहुरि निर्मथ स्नातक ए दोऊ एक यथाख्यातसंयमवि वर्ते हैं । बहुरि श्रुत पुलाक बकुश प्रतिसेवनाकुशील इन तीनिनिकै उत्कृष्ट दशपूर्वतांई है। बहुरि कषायकुशील अर निग्रंथ इनकै चौदहपूर्वताई हैं। बहुरि जघन्यकरि पुलाककै तौ आचारांगहीमें आचारवस्तुताई है । बहुरि बकुश कुशील निर्गथके आठ प्रवचनमातृकाताई हैं । पांच समिति तीनि गुप्तिका व्याख्यानरूप अधिकार आचारांगमें है, तहांताई होय है । बहुरि स्नातक हैं ते केवली हैं, तिनकै रुत नाहीं है । बहुरि प्रतिसेवनापुलाकके तौ पंचमहावत एक रात्रिभोजनकी त्याग छह व्रतनिमें परके वश” जबरीतें एक व्रत कोईकी विराधना होय है। - इहां कोई पूछे है, कहा विराधन होय है? तहां कहिये, जो, महाव्रतकी प्रतिज्ञा मन वचन | काय कृत कारित अनुमोदनाकरि त्यागरूप है, तातें दोष लागनेके अनेक भंग हैं । तातें कोई भंगमें परके वश” विराधना होय जाय है । यह सामर्थ्यहीनपणाकरि दूषण लागै है । बहुरि बकुश दोयप्रकार है; उपकरणवकुश, शरीरवकुश । तहां उपकरणवकुशकै तौ बहुतविशेषनिकार सहित कमंडलू पीछी पुस्तक बंधन आदि धर्मोपकरणकी अभिलाष होय तो यह प्रतिसेवना है। बहुरि शरीरबकुहै शकै शरीरका संस्कार कदाचित् करै तब प्रतिसेवना है । बहुरि प्रतिसेवनाकुशील मूलगुण तो विराधै For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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