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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७३६ ॥ एक ध्येय छोडि दूसरा ध्येयविषै उपयोग आवै । ऐसें अन्यअन्य ध्येय पलटनेरूप ध्यानका संतान चल्या जाये | तब बहुतकालभी ध्यानका अवस्थान कहिये । यामें ध्यानका विरोध नाही ॥ - बौद्धमती तर्क करे है, जो अंतर्मुहूर्त ध्यानकी स्थिति है। अंतर्मुहूर्त के समय तौ बहुत हैं । तिनविर्षे सयमसयम एकध्येयपरि तैसाही ध्यान होय । तैसेंही द्वितीयआदि अंतर्मुहूर्तविषै लगता तैसाही क्यों न कहौ ? ऐसें बहुतकालभी एकध्येयविषै ध्यानका अविच्छेद आवे है । अर अंतर्मुहूर्त में विच्छेद कहौ तौ द्वितीयसमयविषैही विच्छेद ठहरे है । ऐसें समयमात्रही ध्यानकी स्थिति ठहरेगी। हमारे सर्वपदार्थकी क्षणमात्र स्थितिकी मान्य है । अर क्षणिकविषै बाधा आवै है । ताका समाधान, ऐसैं क्षणस्थायी वस्तु मानते जे बौद्धमती तिनके पहले क्षण ध्यानकी अवस्थिति है, तेही तिस ध्यान के अंतसमयभी एकक्षणस्थायीपणा ठहन्या, तब ध्यानका काहूं क्षण के विषै विनाश नाही कहिये | जातें सर्वक्षण में व्यापक ध्यानकी स्थिति ठहरी । जो ऐसें न मानिये तौ एकक्षणमात्रभी स्थिति नाहीं ठहरे । अर वह कहै, जो, एकक्षणस्थायीके जो उत्पत्ति है सोही विनाश है । तातें सदाअवस्थित नाहीं कहिये । ताकूं कहिये, जो, ऐसें है तो हम अंतर्मुहूर्तस्थितिमात्र ध्यान कहै हैं । सो हमारैभी अंतर्मुहूर्त उत्तरकालविषै समयआदिकी स्थिति की उत्पत्ति सोही For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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