SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 728
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra C www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७१० ॥ गुप्तिसमिति होतैं या सूक्ष्मलोभकषायका होना यह विशेष गुण है । ताकी अपेक्षा न्याराही जानना | बहुरि सूत्र के अनुक्रमवचनकर उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धता जाननी । बहुरि चारित्र के भेद शब्दअपेक्षा तो संख्यात हैं । बुद्धि के विचारतें असंख्यात हैं । अर्थ अनंतभेद हैं । ऐसें यहू चारित्र आश्रवके निरोध परमसंवरका कारण जानना । अर समितिविषै प्रवर्तें है । तामें धर्म अनुप्रेक्षा परीषहनिका जीतना चारित्र यथासंभव जाननें ॥ आगे पूछे है कि, चारित्र तौ कह्या, ताके अनंतर 'तपसा निर्जरा च' ऐसा कह्या था सो अब तपका विधान कहना । ऐसें पूछें कहैं हैं । तप दोयप्रकार है, बाह्य आभ्यंतर । सोभी प्रत्येक छप्रकार है । तहां बाह्य तपके भेद जाननेकूं सूत्र कहै हैं ॥ अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरस परित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः ॥ १९ ॥ याका अर्थ — अनशन, अवमौदार्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ए छह बाह्यतप हैं । तहां इष्टफल कहिये धनकी प्राप्ति, जगतमें प्रशंसा स्तुति होना, रोगादिक मिटना, भय मिटना, मंत्रसाधन करना इत्यादिक इसलोकसंबंधी फलकी अपेक्षा जामें For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy