SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 718
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७०० ॥ नियम कह्या है । फेरि तर्क करे हैं, जो, इहां मोहका उदयका सहाय नाही, तथा मंद उदय है, ताते क्षुधाआदिकी वेदना नाही, परीषह तो वेदनाकू सहै । ताकू कहिये, तातें तहां परीषहका नामही युक्त नाहीं। तहां कहै हैं, जो, ऐसा नाहीं है। इहां शक्तिमात्रकी विवक्षा है । जैसे सर्वार्थसिद्धिके देवनिकै सातमी पृथिवीताई गमन करनेकी शक्ति है ते कबहूं गमन करे नाही, तोऊ तिनके शक्तिअपेक्षा कहिये । तैसें इहांभी जानना । इह उपचारकरि कह्या है ॥ आगें पूछे है कि, जो, शरीरवान आत्माविर्षे परीषह आवनेका नियमवचन कीजिये है, तो भगवान् भये तिनकू केवलज्ञान उपज्या अर अघातिकर्म च्यारिका फल भोगवै है तिनके केते परीषह कहिये ? तहां सूत्र कहै हैं ॥एकादश जिने ॥ ११॥ याका अर्थ-जिन कहिये केवलज्ञानी तिनविर्षे ग्यारह परीषहका सद्भाव है । तहां नष्ट भया है घातिकर्मका चतुष्टय जाके ऐसा जो जिन केवलज्ञानी भगवान ताके वेदनीयकर्म के उदयके सद्भावतें तिसके आश्रयतें भये ऐसे ग्यारह परीषह हैं । इहां तर्क, जो, मोहनीयकर्मके सहायके | अभावतें क्षुधाआदिकी वेदनाका तो अभाव है । तहां परीषहका कहना युक्त नाहीं । ताका rawbrerativectiveeriratibordNDreatiramalibe For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy