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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९५ । || आहार ले हैं। बहुरि विरुद्ध आहार पाणी मिलै ताके सेवनेकरि उपजे हैं वात आदि विकारके रोग जिनके ऐसे एककाल अनेक सैंकडा रोगनिका कोप होतेंभी तिनके वशवर्ती नाहीं होय हैं। जिनकै जल्लोषधि प्राप्ति आदि अनेकऋद्धि तपके विशेषतें प्राप्त भई हैं तोऊ शरीरतें निःस्पृह हैं। यातें कछु इलाज नाहीं करै हैं । ऐसें माने हैं, जो, पूर्वपापकर्मका उदय भुगतेंही देना उतरेगा, ऐसें मुनिराजके रोगपरीषहका सहना जानना ॥ १६ ॥ तृणआदिके निमित्त वेदना होते मन ताविर्षे लगावै नाहीं, सो तृणस्पर्शपरीषहका जीतना है । इहां तृणको ग्रहण उपलक्षणरूप है, जो कोई शरीरमें चुभिकरि वेदना उपजावै सो लेणा। यातें सुका तृण कठोर कांकरी कांटा तीखा सूकी मांटी सूल आदिकरि चुभनेतें पगनिविर्षे वेदना होतें तिसविर्षे चित्त नाही लगावै हैं। कठोर तृणादिसहित भूमिऊपर चलना सोवना बैठना इन क्रियानिविर्षे प्राणीनिकी पीडांका परिहारविर्षे सदा प्रमादरहित है चित्त जिनका ऐसे मुनिके | तृणस्पर्शकी बाधाका परीषहका जीतना जानना ।। १७ ॥ अपना शरीरका मलका दूरि करनेविर्षे अर परके मल देखि अपना मन मैला करनेविर्षे पृष्ट चित्त न लगावें, सो मलपरिषहका जीतना है । तहां कैसे हैं मुनि ? जलके जीवनिकी पीडाका PAROPAHARIORRECORPIONORRECAPSAPANAPAISION EASOPANIPRAJAPANIPAPARNEAPOARPANEOPAGAPPS For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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