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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९२ ।। ఆగానం కలకలం రండరగండరగండరగండరు मात्रकूभी अपने हृदयविर्षे अवकाश न दे हैं। ऐसें आक्रोशपरीषहका जीतना होय है ॥ १२ ॥ ___मारने वालातें क्रोध न करना, सो वधपरिषहका सहन है । तहां तीखण छुरी मूशल मुद्गर आदि शस्त्रनिके घातकरि ताडना पीडना आदितें वध्या है शरीर जिनका, बहुरि घात करनेवाले | विर्षे किंचिन्मात्रभी विकारपरिणाम नाही करै है, विचारै हैं “जो यह मेरे पूर्वकर्मका फल है ए देनेवाला गरीव रंक कहा करै ? यह शरीर जलके बुदबुदेकीज्यौं विनाशिकस्वभाव है, कष्टका कारण है, ताकू ए बाधा करै है, मेरे सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रकू तौ कोई घात सकै नाही" ऐसा विचार करते रहे हैं । कुहाडी बसोलाकी घात अर चंदनका लेपन दोऊनिकू समान दीखे हैं। तिनके वधपरीषहका सहना मानिये हैं। वे महामुनि ग्राम उद्यान वनी नगरनिविर्षे रात्रिदिन एकाकी नम रहे हैं । तहां चोर राक्षस म्लेंछ भील वधिक पूर्वजन्मके वैरी परमती भेषी इत्यादि क्रोधके वशि भये घात आदि करै हैं । तोऊ तिनके क्षमाही करै हैं । तिनके वधपरीषहसहना सत्यार्थ है ॥१३॥ प्राण के नाश होतेंभी आहारआदिवि दीनवचनकरि याचना नाही करै, सो याचनापरिषहका सहना है ॥ तहां बाह्य आभ्यंतरतपका आचरणविर्षे तो तत्पर रहैं, बहुरि तपकी भावनाकरि || साररहित भया है देह जिनका, तीव्र सूर्यके तापकरि जैसे वृक्ष सूकि जाय छाया” रहित होय जाय asperdastiseatsANDvertisembarrass For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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