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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। नवम अध्याय ।। पान ६८० ॥ सुंदर पावै अर नेत्रकरि अंध होय सो मुखकी सुंदरता वृथा है । बहुरि ऐसा दुर्लभ धर्मभी पायकरि जो विषयसुखनिविषै आसक्त होना होय, सो जैसैं भस्म के अर्थ चंदनकूं वालि दीजिये तैसें निष्फल गमावना है । बहुरि जो विषयतें विरक्त होय तिस पुरुषकै तपकी भावना धर्मकी प्रभावना सुखतें मरणा करनेरूप समाधि सो होना दुर्लभ है । बहुरि तिसकुंभी होते जो स्वभावकी प्राप्तिरूप बोधि ताका लाभ होय तौ फलवान् है । ऐसें चिंतवना सो बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है । ऐसें याके चितवन करते पुरुषकै बोधिकं पायकरि कदाचितभी प्रमाद नाहीं होय है ॥ जिनेन्द्रका उपदेशया आदि अहिंसालक्षण है, सत्यकूं अधिकारकरि प्रवर्ते हैं, विनय जाका मूल है, क्षमाका जामें बल है, ब्रह्मचर्य जाकरि रक्षा है, उपशम कहिये कषायका अभाव जामें प्रधान है, नियति कहिये नियम त्याग निवृत्ति जाका स्वरूप है, निर्बंथपणाका जामें आलंबन है ऐसा जिनभगवान्करि धर्मस्वाख्यातत्व भलेप्रकार व्याख्यान कीया है । याके अलाभतें यह जीव अनादि संसारविषै भ्रमण करें है । पापकर्मके उदयतें उपज्यो जो दुःख ताहि भोगता संता अ है । बहुरिया धर्म के पाये अनेकप्रकार इन्द्रादिकपदकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षकी प्राप्ति नियमकरि होये है | ऐसा चिंतन करना सो धर्मस्वाख्यातत्वानुप्रेक्षा है । ऐसें याकूं चिंतवते पुरुषके धर्मविषै For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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