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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिषचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७५ ॥ याकू ऐसे विचारता पुरुषकै शरीरतें वैराग्य उपजै है। तब वैरागी हूवा संता संसारसमुद्र तिरिवेकू चित्त समाधानरूप करै है ॥ याका विस्तार ऐसा, जो, अशुचिपणा दोय प्रकार है, लौकिक अलौकिक । तहां आत्मा कर्ममलकलंककू धोयकरि अपने शुद्धस्वरूपविर्षे तिष्ठे सो तो अलौकिकशुचिपणा है। या साधन सम्यग्दर्शनआदिक हैं। अथवा ए जिनमें पाईये ऐसे महामनि हैं। अर तिन मुनिनिकरि आश्रित जे निर्वाणक्षेत्र आदिक तीर्थ हैं ते ए शुद्धि आत्माकी प्राप्तिके उपाय हैं । तातें तिनकीभी नामशुद्धि कहिये । बहुरि लौकिक शुचिपणा लोक आठपकार मानें हैं। काल अमि पवन भस्म मृत्तिका गोमय जल जान । जातें इनके निमित्तते ग्लानि मिटै है। सो ए आठहि प्रकार | या शरीरकू पवित्र शुचि करनेकू समर्थ नाहीं। जातें यह शरीर अत्यंत अशुचि है, याकी उत्पत्ति जहां होय सोभी अशुचि, यह उपज्या सोभी अशुचि । देखो! कवलाहार मुखमें लेतेही श्लेष्मका ठिकाणा पायकरि तो तत्काल श्लेष्मते मिलि द्रव है। तापी, पित्तके ठिकाणे जाय पचै तब अशुचिही होय | है। पीछे पचिकरि वातके ठिकाणे जाय वातकरि भेदरूप कीया हुवा खलरसभाव परिणवै है । इन सर्वनिका भांजन भिष्ठाका ठिकाणाकीज्यौं है । खलभाव तौ मलमूत्रआदि विकाररूप होय है । अर | रसभाव रुधिर मांस मेद मजा शुक्ररूप होय है । -याका पवित्र करनेका उपाय किछुभी नाहीं है। For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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