SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 690
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ।। पान ६७२ ॥ SASARARIACOOPARAPATRAPARKHAPAGAPAGAPRApr अपेक्षा तथा भव्यसामान्यकी अपेक्षा तो अनादिनिधन है । बहुरि भव्यविशेषकी अपेक्षाकरि सादि सनिधन है। बहुरि नोसंसार है सो सादि निधन है । बहुरि असंसार सादि अनिधन है । बहुरि तत्रितयव्यपेत अयोगकेवली अंतर्मुहूर्तकाल है ॥ बहुरि पंचपरावर्तनरूप संसारका व्याख्यान तो पहले कीयाही है, ताका संक्षेप ऐसा है, जो, द्रव्यनिमित्त संसार तो च्यारिप्रकार है, कर्म नोकर्म वस्तु विषय, इनके आश्रयते च्यारि भेद होय हैं । बहुरि क्षेत्रनिमित्तके दोय प्रकार हैं, स्वक्षेत्र परक्षेत्र । तहां आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यातप्रदेशी है, सो कर्मके वशतें संकोचविस्ताररूप हीनाधिक अवगाहनारूप परिणमै, सो स्वक्षेत्रसंसार है । बहुरि जन्मयोनिके भेदकरि लोकमें उपजै लोककू स्पर्शे सो परक्षेत्रसंसार है । बहुरि काल निश्चयव्यवहारकरि दोयप्रकार है। तहां निश्चयकाल करि वाया जो क्रियारूप तथा उत्पादव्ययध्रौव्यरूप परिणाम, सो तो निश्चयकाल निमित्तसंसार है । बहुरि अतीत अनागत वर्तमानरूप भ्रमण, सो व्यवहारकाल निमित्तसंसार है ॥ बहुरि भवनिमित्तके बत्तीस भेद हैं । तहां पृथ्वी अप् तेज वायु कायकके भव सूक्ष्म | बादर पर्याप्त अपर्याप्तककरि सोलह हैं। प्रत्येकवनस्पति पर्याप्त अपर्याप्तककरि दोय हैं । साधारण For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy