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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६५ ॥ लोक परलोकमें दुःखका न होना सर्व जीवविर्षे सन्मान सत्कार आदरका होना इत्यादिक क्षमातें गुण होय हैं। बहुरि धर्म अर्थ काम मोक्ष इनका नाश होना बहुरि प्राणनिका नाश होना ए क्रोधत दोष होय हैं तहां कोई अन्यपुरुष आपके क्रोध उपजनेका कारण मिलाया तहां ऐसा चिंतवन करना, जो, आपविर्षे दोष होय तिनका पैला निषेध करै । तब आप ऐसा विचारै, जो, मोविर्षे ए दोष हैं, यह कहा झूठ कहै है ? ऐसा विचारि क्षमा करनी । बहुरि आपविर्षे दोष न होय तो ऐसा विचारै, जो, ए कहे हैं ते दोष मोवि नाही, पैला विनासमझा अज्ञानतें कहै है, || अज्ञानीते कहा क्रोध ? ऐसें विचारि क्षमा करनी । बहुरि अज्ञानीका बालककासा स्वभाव है विचारना। कोई अज्ञानी परोक्ष आपकू दुर्वचन कहै तब विचारणा, जो, यह परोक्ष कहै है, अज्ञानी तो प्रत्यक्षभी कहै है, सो मोकू प्रत्यक्ष न कह्या एही भला भई । बहुरि प्रत्यक्षभी कहै | तो ऐसी विचारणी, जो, अज्ञानी तो मेरा ताडनभी करै यह दुर्वचनही कहै है, सोही भला है । बहुरि ताडै तौ ऐसा विचारणा, जो, अज्ञानी तो प्राणघातभी करै है, यह ताडैही है, प्राणघात | न कीया, सो भला भई । बहुरि प्राणघातभी करै तो ऐसा विचारै, जो, अज्ञानी तौ धर्मविध्वंसभी | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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