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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकुता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४७ ॥ | कहिये । याकामी अंतर्मुहूर्तका काल है। तहां ताकू भोगि के तौ मिथ्यादृष्टि होय, के फेरि सम्यक्त्वकू प्राप्त होय है ॥ . - बहुरि अविरतसंयत चौथा गुणस्थान है। तहां औपशमिक तथा क्षायोपशमिक तथा क्षायिक सम्यक्त्व तौ पाईए अर चारित्रमोहकी प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयतें एकदेश संयमरूपभी परिणाम | न होय सकै, तातें अविरतसम्यग्दृष्टि ऐसा नाम है । बहुरि अप्रत्याख्यानावरणकषायके अभावतें | एकदेशविरति परिणाम होय, प्रत्याख्यानावरणके उदयतें सकलविरति न होय, तातें विरताविरत नाम | पावै ऐसा पांचवां गुणस्थान होय, याका धारककू श्रावक कहिये । बहुरि प्रत्याख्यानावरणकषायका | उदयकाभी अभाव होय अरु संज्वलननोकषायका तीव्रउदयतें किंचित् प्रमादसहित सकलसंयम होय | है, तातें प्रमत्तसंयत ऐसा नामधारक छठा गुणस्थान होय है । बहुरि संज्वलननोकषायका हीन उदय | होते प्रमादका अभाव होय तब अप्रमत्तसंयत सातमां गुणस्थान नाम पावै है ॥ | बहुरि संज्वलननोकषायकाभी जहां अव्यक्त उदय होय जाय तब उपशमश्रेणी तथा | | क्षपक श्रेणी नाम पावै है । सो श्रेणीके प्रारंभविषेभी करणपरिणाम होय, जहां सातमां गुणस्था| नवर्ती जब ध्यान करने लगे तब शुद्धोपयोगमें लीन होय, जब जिस जीवके श्रेणीका प्रारंभ PAPERPANIPATPARAPEOPARDAFASPKINEAAPKORKERPROGRAPAR VAPU92a For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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