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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४१ ॥
स्त्यानगृद्धि, अनंतानुबंधी क्रोध मान माया लोभ ए च्यारि, स्त्रीवेद, तिर्यंचआयु, तिर्यंचगति, च्यारि मध्यके संस्थान, च्यारि मध्यके संहनन, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, नीचगोत्र ए पचीस प्रकृतिनिका तो अनंतानुबंधीकषायके उदयकृत असंयमकू प्रधानकरि आश्रव होय था, एकेन्द्रियकू आदि दे सासादन सम्यग्दृष्टीपर्यंत । सर्वही जीव इनका बंध करै थे, सो तिस अनंतानुबंधी असंयमका अभाव हो सासादनतें अगिले गुणस्थाननिविर्षे तिनका संवर भया ।
बहुरि अप्रत्याख्यानावरणके उदयकरि भया जो असंयम ताके निमित्ततें अप्रत्याख्यानावरण | | क्रोध मान माया लोभ, मनुष्यआयु, मनुष्यगति, औदारिकशरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रवृ.
भनाराचसंहनन, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्य इन दशप्रकृतिनिका आश्रव एकेन्द्रियतें लगाय असंयतसम्यग्दृष्टीताईं जीव बंध करै थे, सो तिस अप्रत्याख्यानावरणकृत संयमके अभावतें तिसतें उपरिके देशसंयत आदि गुणस्थानविर्षे तिनका संवर होय है। बहुरि सम्यग्मिथ्यात्व तीसरा
गुणस्थानविर्षे आयुका बंध नाही होय है । बहुरि प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयकरि भया जो । असंयम ताके होते प्रत्याख्यानावरण गुणस्थानवाले जीवनिताई बंध करनेवाले थे सो तिस
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