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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय || पान ६०२ ॥ 1 वेदन की प्रकृति सुखदुःखका संवेदन है | दर्शनमोहकी प्रकृति तत्वार्थका अश्रद्धान है | चारित्रमोहकी प्रकृति असंयमभाव है । आयुकी प्रकृति भवका धारणा है । नामकी प्रकृति नारकआदि नामका कारण है । गोत्रकी प्रकृति ऊंचा नीचा स्थानका नाम पावना है। अंतरायकी प्रकृति दान आदिका विघ्न करणा है । सो ऐसा है लक्षण जाका ऐसा कार्यकूं प्रकर्षकरि करै । जातें ऐसा कार्य प्रगट होय सो प्रकृति है ॥ बहुरि तिस प्रकृतिस्वभावतें छूटे नाहीं तेंतैं स्थिति कहिये । जैसें छेली गऊ भैंसि आदिके दूधका मीठापणा स्वभावतें जेते न छूटना सो स्थिति है । तैसैंही ज्ञानावरण आदिका जो अर्थका न जानना आदि स्वभावतें न छूटना सो स्थिति है । बहुरि तिन कर्मनिका रसका तीव्र मंद विशेष सो अनुभव है । जैसें छेली गऊ भैंसि आदिका दूधका तीव्र मंद आदि भावकरि रसस्वादका विशेष है तैसेंही कर्मपुद्गलनिका अपनेविषै प्राप्त भया जो सामर्थ्यका विशेष, सो अनुभव है ॥ बहुरि परमाणुनिका गणतिरूप अवधारणा जो एते है सो प्रदेश है, जो पुद्गलपरमाणुके स्कंध कर्म भावकूं परिणये तिनका गणनारूप परिमाण यामें करिये है । बहुरि विधिशब्द है सो प्रकारवाची है । ते ए प्रकृति आदि तिस बंधके प्रकार हैं । तहां योगतें तौ प्रकृति प्रदेश बंध होय For Private and Personal Use Only Beexxx
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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