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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचानका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय ॥ पान ५५२ ॥ है । बाह्यपरिग्रह न होतेंभी मेरा यऊ है ऐसें परविर्षे संकल्प करनेवाला पुरुष है, सो परिग्रहसहितही है । अथवा बाह्य परिग्रह नाहींभी कहिये है बहुरि परिग्रह हैभी ऐसाभी कहिये, जाते मूर्जाका आलंबन कारण है । तथा मूर्छा है कारण जाडूं ऐसा है ॥ बहुरि इहां तर्क, जो, मेरा यऊ है ऐसा संकल्प है सोभी परिग्रहवाची है, तो सम्यग्ज्ञानादिकवि भी यह मेरा है ऐसा संकल्प है, सोभी परिग्रह ठहया । रागादिपरिणाम अभ्यंतरपरिग्रहकीज्यौं यहभी है । ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं । जातें इहां प्रमत्तयोगकी अनुवृत्ति है, ताते ज्ञानदर्शनचारित्रवान पुरुष है सो मोहके अभावतें अप्रमत्त है, तातें ताकै मूळ नाहीं है, ऐसा याकै निष्परिग्रहपणा सिद्ध है ॥ इहां ऐसाभी विशेष जानना, जो, ज्ञानादि आत्माके स्वभाव हैं, त्यागनेयोग्य नाहीं । ताते तिनः परिग्रहसहितपणा न होय है अर रागादिक हैं ते आत्माके स्वभाव नाहीं । कर्मके उदयके आधीन होय है, तातें त्यागनेयोग्य हैं । तातें तिनविर्षे मेरा यऊ है ऐसा संकल्प है सो परिग्रह हैही, यह कहना युक्त है । इन रागादिकनिहीत सर्व दोष उपजे हैं । ए सर्व दोषनिके मूल हैं । मेरा यऊ है ऐसे संकल्पतेही परिग्रहकी रक्षा करनी उपार्जन करना इत्यादिक उपजै हैं । तिनविर्षे अवश्य हिंसा होय है । इनके निमित्त झूठ बोले है, चोरी करै For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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