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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ सप्तम अध्याय || पान ५३३ || ठिकाने शास्त्रोक्त जानें हैं तिनकूं संयोगविभाग गुणदोषका ज्ञान है, तिनकै तत्कालही भोजन बर्णे हैं, ल्यायकरि खानेमें अनेक दोष दीखें हैं । ताका विसर्जन करै तौ तामें अनेकदोष उपजे हैं । तातें सूर्य के प्रकाशमें प्रगट देखि दिनमेंही भोजन करना युक्त है । जैसें सूर्य के प्रकाशमें प्रगट भूमि देश दातार जन गमन आदि तथा अन्नपान डाला स्पष्ट दीखै; तैमैं चंद्रमाआदिका प्रकाशतें नाहीं दीखै ऐसा जानना ॥ आगे तिस पांच व्रतनिके भेद जाननेकूं सूत्र कहै हैं - ॥देशसर्वतोऽणुमहती ॥ २ ॥ याका अर्थ - ए पांचूही व्रत जब एकदेश होय तब तौ अणुव्रत कहिये । बहुरि सकल होय तब महाव्रत कहिये । इहां देश ऐसा तौ एकदेशकूं कहना । सर्व सकलकूं कहना । तिन देश विरति होय सो देशव्रत अणुव्रत है, सकलवत महावत है, ऐसे दोय भेद भये । वितिशब्दकी अनुवृत्ति ऊपरले सूत्र लेणी । ए दोऊ प्रकार व्रत न्यारे न्यारे भावनारूप किये संते श्रेष्ठ औषधकीज्यों दुःख दूर करने के कारण होय हैं । आगे पूछें, तिन व्रतनिकी भावना कौनअर्थि है? तथा कौंनप्रकार है सो कहौ ऐसें पूछें सूत्र कहैं हैं For Private and Personal Use Only 609602488220
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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