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॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०६॥
अनेक कार्य हैं, सो करनें, ताकरि कषायवेदनीयका आश्रव होय है ॥
बहुरि नोकषायवेदनीयके कहे हैं । तहां सत्यधर्मकी हास्य करना, दीनजननिके मुखपरि हास्य करना, बहुतप्रलाप, निरर्थक हसना, हास्यहीका स्वभाव राखना ताकरि हास्यवेदनीयका आश्रव होय है। बहरि अनेक प्रकार क्रीडा करनेवि तत्परपणां, व्रतशीलनिविर्षे अरुचिपरिणाम रतिवेदनीयका आश्रव है । बहुरि परके अरति उपजावना, परकी रतिका विनाश करना, पापीपणाका स्वभाव राखणा, पापीजनका संसर्ग करना इत्यादिकते अरतिवेदनीयके आश्रव होय हैं बहुरि आपकै शोक उपजावना परकै शोक होय तामें हर्ष मानना इत्यादिकतै शोकवेदनीयका आश्रव होय है । बहुरि अपने परिणाम भयरूप राखेन परकै भय उपजावनां इत्यादिकनैं भयवेदनीयका आश्रव होय है । बहुरि भले आचारक्रियाविर्षे जुगुप्सा राखणी, ताकी निंदा करणी, परक अपवाद करनेहीका स्वभाव राखना इत्यादिकतें जुगुप्सावेदनीयका आश्रव होय है।
बहुरि झूठ बोलनेहीका स्वभाव राखना, परकू ठगनेवि तत्पर रहना, परके छिद्र दूषण | हेरनेविर्षे अपेक्षा राखणी, अतिवधते राग, काम कुतूहलादिकके परिणाम राखने इत्यादिकतें स्त्रीवेद. वेदनीयका आश्रव होय है । बहुरी थोरे क्रोध आदि कषायनिकरि लिप्त होना, अपनी स्त्रीहीविष
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