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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ५०१ ॥ शरीरकू घसना, रगडना, परकी निंदा करणी, अपनी प्रशंसा करनी, संक्लेश उपजावना, बहु आरंभ करना, बहुपरिग्रह चाहना, परका प्राण हरणा, क्रूरस्वभाव राखणा, पापकर्मकी आजीविका करनी, अनर्थदंड-विनाप्रयोजन पाप करना, आहारादिमें विष मिलावना, पांसी वागुरा जाल पींजरां मंत्र आदि जीवनिके घातका उपाय करना, शस्त्रनिका अभ्यास करना, पापमिश्रभाव राखना, पापी जीवनिस् मित्रता राखनी, तथा तिनकी चाकरी करनी, तिनतें संभाषण देने लेनेका व्यवहार करना, ए सर्वही असातावेदनीयके आश्रवकू कारण हैं । आगें, असातावेदनीयका आश्रवके कारण तो कहे, बहुरि सातावेदनीयका आश्रवका कारण कहा है ऐसें पू॰ सूत्र कहै हैं॥ भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिःशौचमिति सद्वेद्यस्य ॥१२॥ याका अर्थ- भूत कहिये प्राणी अर व्रतवान् इनविर्षे तो अनुकंपा, बहुरि दान देना, सरागसंयम आदिक इनका योग कहिये समाधि भलेप्रकार चित्तका समाधानकरि इनमें लगावणा | चितवना, बहुरि क्षमा शौच बहुरि इतिशब्दतें अरहंतपूजादिक ए सर्व सातावेदनीयके आश्रयके | कारण हैं। तहां कर्मके उदयके वशतें गतिगतिविर्षे वर्तता जो भूत कहिये प्राणिमात्र लेणे । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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