SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थासद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९९ ॥ तातें दुःखही कहते विशेष न जानिये तब केईक विशेष कहनेकरि तिनका भेदका ज्ञान होय है । तातें विशेष कहै हैं । ते एते दुःखआदिक क्रोधादिक परिणामनितें आपविषेभी होय हैं । तथा परकैभी कीजिये है तथा आपकै करि पैलाकैभी करै ऐसें दोऊविभी होय हैं ते सर्वही असातावेदनी. यकर्मके आश्रवके कारण हैं। इहां तर्क, जो, दुःखआदिक आपकै तथा परकै तथा दोऊकै कीये पाकें असातावेदनीयके आश्रवके कारण हैं, तो केशनिका लोच करना , अनशन तप करना, आतापनादि योग करना ए दुःखके कारण हैं ते आप करे परके करावै सो कौंन अर्थि है ? ताका समाधान , जो, यह दोष नाहीं है । जो अंतरंग क्रोधआदिकपरिणामके आवेशपूर्वक दुःखआदिक हैं, ते असातावेदनीयके आश्रवकू निमित्त हैं ऐसा विशेषकरि कह्या है। जैसे कोई वैद्य परमकरुणाचित्तकरि निःशल्य हुवा यत्नतें संयमीपुरुषके गूमडाकै चीरा दे है, सो वाकै दुःखका कारण है, तोऊ तिस वैद्यके बाह्य दुःखके निमित्तमात्र” पापबंध न होय है; तैसेंही संसारसंबंधी महादुःखतें विरक्त जो मुनि तिस दुःखको अभाव करनेके उपायविर्षे मन लगाया है, शास्त्रोक्तविधानकरि अनशनादिकविर्षे प्रवर्ते है तथा अन्यकू पवावै है, ताके संक्लेशपरिणामके अभावतें बाह्य दुःखनिमित्तपरता हो भी extraptertobertopseaksisextasverisabseriessertsubixs For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy