________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९७ ॥ | करना, श्रद्धान न करना, अभ्यासविर्षे आलस्य करना, अनादरतें शास्त्रका अर्थकू सुनना, तीर्थ कहिये मोक्षमार्ग ताका उपरोध कहिये रोकना-चलने न देना, बहुश्रुत होय गर्व करना, झूठा उपदेश करना, बहुश्रुतकी अवज्ञा करनी, परमतकी पक्ष करनेविर्षे पंडितपणा करना, अपने मतकी, पक्ष छोडणी, असंबद्धप्रलाप कहिये वृथा बकवाद करना, उत्सूत्रभाषण, ज्ञानाभ्यास करै सो कुछ लौकिकप्रयोजन सधै तैसें करै, शास्त्रको बेचे, प्राणीनिका घात करै इत्यादिक ज्ञानावरणकर्मके आश्रवकू कारण हैं । बहुरि तैसेंही दर्शनविर्षे मात्सर्य कहिये पैलै देखें ताकू दिखावै नहीं, तथा देखताके देखनेवि अंतराय करै, बहुरि पैलाके नेत्र उपाडै, तथा परके इन्द्रियनिविर्षे प्रतिकूलता कहिये. बिगाड्या चाहैं, अपनी दृष्टि सुंदर होय बहुरि दीखता होय ताका गर्व, तथा नेत्रनिकू आयत लंबे करनें फाडिकरि देखना, तथा दिनविर्षे सोवना, तथा आलस्यरूप रहना, तथा नास्तिकपक्षका ग्रहण करना, सम्यग्दृष्टीकू दूषण लगावना, कुतीर्थकी प्रशंसा करनी, प्राणीनिका घात करना, यतीश्वरनिकू देखि ग्लानि करनी इत्यादि दर्शनावरणकर्मके आश्रवकू कारण हैं ॥
आगें, जैसें ज्ञानदर्शनावरणकर्मका आश्रवका विशेष कह्या, तैसेंही वेदनीयकर्मका कहै. | हैं, ताका सूत्र
adisexeiseatspxsertebratisexasiproxidaiprerities
For Private and Personal Use Only