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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra *** www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४९५ ॥ मन राखे अंतरंगविर्षे वासूं अदेखसाभावकरि तथा ज्ञानकूं दोष लगावने के अभिप्रायकर वाका साधक न रहै, ताके ऐसे परिणामकूं प्रदोष कहिये । बहुरि आपकूं जिसका ज्ञान होय अर कोई कारणकर कहै जो नाही है, तथा में जानूं नाही । जैसैं काहूंनें पूछया जो हिंसातें कहा होय ? तहां. आप जानें है जो हिंसातें पाप है, तहां कोई हिंसक पुरुष बैठ्या होय ताके भयतें तथा आपकूं हिंसा करनी होय तथा आपके अन्य किछु कार्यका आरंभ होय इत्यादिक कारणानितें कहै, जो, मै तो जानूं नाही, तथा कहै है, हिंसामें पाप नाही इत्यादिकरि अपने ज्ञानकूं छिपावै, ताकूं निन्हव कहिये । बहुरि आप शास्त्रादिका ज्ञान भलेप्रकार पढया होय पैलेकूं शिखावनें योग्य होय तौऊ कोई कारणतें शिखावै नाही । ऐसें विचारै, जो पैलेकूं होय जायगा तौ मेरी बरोबरी करेगा इत्यादि परिणाम मात्सर्य कहिये ॥ बहुरि ज्ञानका विच्छेद करे विघ्न पाडै ताकूं अंतराय कहिये । बहुरि परके तथा आपका प्रगट करनेयोग्य ज्ञान होय ताकूं वचनकरि तथा कायकरि बजे प्रगट करे नाही तथा परकूं कहै ज्ञानकूं प्रकाशै मति, इत्यादि कहै सो आसादना कहिये | बहुरि सराहनेयोग्य साचा ज्ञान होय ताकूं दूषण लगावै सो उपघात कहिये । इहां कोई कहै, दूषण लगावणा उपघात कह्या सो तौ आसादनाही For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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