SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 503
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ षष्ठ अध्याय ॥ पान ४८५ ॥ प्रवर्तन, सो प्रयोगक्रिया है ॥ ३ ॥ संयमी पुरुषकै असंयमके सन्मुखपणा, सो समादानक्रिया है ॥४॥ ईर्यापथगमन करना, सो ईर्यापथक्रिया है ॥ ५ ॥ ऐसें पांच ए क्रिया भई ॥ बहुरि क्रोधके वश” परकू दोष लगावनेकी प्रवृत्ति दुष्टस्वभावता, सो प्रादोषिकी क्रिया | है ॥ १ ॥ दुष्टपनाके कार्य चोरी आदिका उद्यम करना, सो कायिकी किया ॥२॥ हिंसाके उपकरण शस्त्रादिकका ग्रहण, सो अधिकरणिकी क्रिया है ।। ३ ॥ जाते आपकू परकू दुःख उपजै ऐसा | प्रवर्तन, सो पारितापिकी क्रिया है ॥ ४ ॥ आयु इन्द्रिय बल उच्छास निःश्वास जे प्राण तिनका वियोग करना, सो प्राणातिपातिनी क्रिया है ।। ५ ॥ ऐसें ए पांच क्रिया ॥ - बहुरि प्रमादी पुरुषकै रागभावका आदितपणातें रमणीकरूप देखनेका अभिप्राय सो दर्शनक्रिया है ॥ १ ॥ प्रमादके वश” स्पर्शनयोग्य वस्तुकविर्षे रागपरिणामतें प्रवृत्ति, सो स्पर्शनक्रिया है ॥ २ ॥ विषयके अपूर्व नवे नवे कारण आधार उपजावना, सो प्रत्ययिकी क्रिया है ॥ ३ ॥ जहां स्त्री पुरुष पशु बैठते प्रवर्तते होय तिस क्षेत्र में मलमूत्र क्षेपणा, सो समतानुपातक्रिया है॥४॥ विनाझाड्या विनामर्दलीथिवीउपरि काय आदिका निक्षेपण करना, सो अनाभोगक्रिया है ॥ ५॥ ऐसे ए पांच क्रिया ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy