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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir . ॥ सर्वामिविचाविका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४७ ॥ पूर्वउत्तरभावप्रज्ञापननयकी अपेक्षाकरि उपचारकल्पनाकरि प्रदेशपचय कला ॥ ___भावार्थ- परमाणु संघातते स्कंधरूप होय हैं, तातें प्रदेशप्रचय होय है । बहुरि कालके दोऊही रीति प्रदेशप्रचयकी कल्पना नाहीं । तातें याकै अकायपणांही है। बहुरि जो कालकं धर्मादिकके पाठमें कहते तो तहां निष्क्रियाणि इस सूत्रवि धर्मआदि आकाशपर्यंत कियारहित कहे थे, तातें अन्य जे जीवपुद्गल तिनकै क्रियासहितपणांकी प्राप्ति आई थी, सो कालकैभी सक्रियपणां ठहरता । बहुरि जो आकाससे पहले काल कहते तो 'आ आकाशादेकद्रव्याणि ' इस सूत्रते आकाशके एकद्रव्यपणा ठहरता । तातें न्याराही इहां कालका उपदेश किया है ॥ . इहां पूछे है, जो, कालकू अनेकद्रव्य कहिये है, तहां कहा प्रमाण है ? ताका उत्तर, जो, आगमप्रमाणकरि कहिये है। लोकाकाशके जेते प्रदेश हैं तेते कालके अणु क्रियारहित एकएक आकाशके प्रदेशविर्षे एकएक न्यारेन्यारे लोको व्यापिकरि तिष्ट हैं। इहां उक्तं च गाथा है, ताका अर्थ- लोकाकाशके प्रदेश एकएकके विर्षे जे एकएक रत्ननिकीज्यौं प्रगटपणे तिष्ठे हैं ते कालाणु जानने । रूपआदि गुणनिकरि रहित अमूर्तिक वर्तनालक्षण जो मुख्यकाल है, ताका यह आगमप्रमाण कहा। alonsackertainalistsreaddiseasesatores For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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