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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४४९॥ संस्थान कहिये आकार, सो दोयप्रकार है इत्थंलक्षण अनित्थंलक्षण । तहां गोल तिकूणा चौळूणा लंबा इत्यादि तौ इत्थलक्षण है, ऐसा है ऐसें कह्या जाय है । बहुरि अनित्थंलक्षण है, सो अनेकप्रकार है। सो बादलनिके आकार आदि है। सो कैसें हैं, ऐसें कहे जाते नाही॥ बहुरि भेद छहप्रकार है, उत्कर चूर्ण खंड चूर्णिका प्रतर अणुचटन ऐसें । तहां काष्ठआदिळू करोतआदिकरि विदारिये सो उत्कर है । बहुरि जो गोहूं आदिका चून होय सो चूर्ण है । बहुरि घट आदिका कपाल आदि होय सो खंड है । बहुरि उडद मूग आदिकी दाल आदि होय सो चूर्णिका है । बहुरि मोडल आदिके पत्र उतारिये सो प्रतर है । बहुरि लोहका पिंड अमित तपाय घणकी चोट दे तब फुलिंगा उछलै ताळू अणुचटन कहिये । ऐसें छह भये ॥ बहुरि तम है सो प्रकाशका विरोधी दृष्टिका प्रतिबंधका कारण है, ताळू अंधेरा कहिये है ॥ बहुरि छाया प्रकाशका आवरणका कारण है । सो दोयप्रकार है । तहां काचविर्षे मुखका वर्णादिरूप परिणवना इत्यादिक सो तदर्ण परिणत कहिये । बहुरि दूजी प्रतिविस्वरूपही है । बहुरि आतप सूर्यका निमित्ततें उष्णप्रकाश होय सो कहिये ॥ बहुरि उद्योत चंद्रकांतमणिका उजाला तथा आक्षाका चमकणा इत्यादिक है । एते शब्द | FAGANPAR GAGANPARIAFSPARGAPPRENEPAOGAROPAGAPNPANKHIOPAN For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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