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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ पंचम अध्याय ॥ पान ४३६ ॥ स्कार होय है। अन्यदिशातें अन्यदिशाकू चल्या जाय है । तातें अमूर्तिक नाही-मूर्तिकही है। बहुरि मन दोयप्रकार है । द्रव्यमन भावमन । तहां ज्ञानावरण वीर्यातराय क्षयोपशमतें पाया जो गुणदोषविचारस्मरणकी शक्तिरूप लब्धि तथा उपयोग सो तौ भावमन है, सो तौ पुद्गलकर्मके क्षयोपशमतें भया, तातें पुद्गलका कहिये । बहुरि तिस भावमनकरि सहित आत्माकै अंगोपांगनामक- | मके उदयतें तिनि गुणदोषविचारस्मरणके उपकारी जे मनपणाकरि परिणये पुद्गल ते पुद्गलामयी हैंही ॥ | इहां कोई अन्यमती कहै है, जो, मन तौ न्यारा द्रव्य है, रूपादिपरिणामरहित है, अणुमात्र | है, ताळू पुद्गलमयी कहना अयुक्त है । ताकू कहिये ए कहना युक्त है। ताकू पूछिये, तें मन न्यारा द्रव्य कह्या सो इन्द्रियकरि तथा आत्माकरि संबंधरूप है, कि असंबंधरूप है ? जो असंबंधरूप है, तो आत्माका उपकारी कैसैं होय? तथा इन्द्रियनिका मंत्रीपणां कैसे करे ? बहुरि संबंध है तो यह अणुमात्र बताया सो आत्माके तथा इन्द्रियके एकप्रदेशमें रहता, अन्यप्रदेशनिविर्षे उपकार नाही करै । बहुरि कहै, जो, आत्माके अदृष्टगुणके वशतें याका आलातचक्रकीज्यों सर्वप्रदेशनिमें परिभ्रमण है । ताकू कहिये, जो, आत्माका अदृष्टगुण तो आत्माकीज्यों अमूर्तिककी है, क्रियारहित है । सो ऐसा होते अन्यवस्तुवि क्रिया करावनेकी सामर्थ्यरहित है । जो आप क्रियावान | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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