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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org ఆడోదకులందరకాండనుందరంటారనుకులందరకుండునని ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३९२ ॥ सागर अधिकरहित है। आरण अच्युतविर्षे सातमें पंद्रह मिले तब बाईस सागर अधिकरहित है ।। आगें इनके उपरि स्थिति जाननेकू सूत्र कहें हैं॥ आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु वेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिध्दौ च ॥३२॥ याका अर्थ-- इहां अधिकका ग्रहणकी अनुवृत्ति करि एकएक वढावना। अवेयकके नवशद्धका ग्रहण एकएक करि बढता जुदा जनावै है। नवशब्द न होय तौ अवेयकविर्षे एकही वधावना ठहरै । बहुरि विजयादिकें आदिशब्द है सो प्रकारार्थ है । सो विजयादिकीज्योंही अनुदिश है, ताका ग्रहण करना । बहुरि सर्वार्थसिद्धिका जुदा ग्रहण जघन्यस्थितिका अभाव जनावनेके अर्थि है । तातें ऐसा अर्थ भया, नीचिले ग्रैवेयकत्रिकमें पहले ग्रैवेयकमें तौ तेईस सागरकी स्थिति है । दूसरेमें चौवीस सागरकी है। तीसरेमें पचीस सागरकी है। बहुरि मध्यप्रैवेयकत्रिकमें पहलेमें छवीस सागर है । दूसरेमें सताईस सागर है। तीसरेमें अट्ठाईस सागर है । उपरले ग्रेवेयकत्रिकमें उनतीस सागर है । दूसरेमें तीस सागर है । तीसरेमें इकतीस सागर है । अनुदिशविमानविर्षे बत्तीस सागर है । विजयादिक विमाननिविर्षे तेतीस सागर उत्कृष्ट है । सर्वार्थसिद्धिविर्षे तेतीस सागर | उत्कृष्टही है । इहां जघन्य नाहीं ॥ cartobertisertiorertisertik-extipreritsar ext For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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