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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aareeriasista ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६९ ।। | दीपकुमार दिक्कुमार ए दशजातिनिकी दश विशेषसंज्ञा हैं । सो नामकर्मके उदयके विशेषकरि इनके नामकी प्रवृत्ति है । बहुरि अवस्थित एकरूप अवस्था तथा स्वभाव सर्वही देवनिके समान हैं। | तथापि ये भवनवासी देव वेष आभूषण आयुध यान वाहन क्रीडन आदिकरि कुमारकीज्यों सोहें हैं प्रवते हैं, तातें इनकू कुमार कहिये हैं। तातें दशही जातिकै कुमारशद्ध जोडना। यहां पूछे हैं, तिनके भवन कहां हैं ? सो कहिये हैं । रत्नप्रभापृथिवीके पंकभागविषे तो असुरकुमारनिके भवन हैं। बहुरि पहला खरभागविर्षे ऊपर नीचें हजार हजार योजन छोडकरि नवजातिके भवनवासी. निके आवास हैं । इहां कोई अन्यवादी कहै, जो, ये देव उत्तमदेवनितें शस्त्रादिकरि युद्ध करै हैं, तातें इनका नाम असुर है। ताकू कहिये, जो, ऐसा कहना तो तिनका अवर्णवाद करना है । ते उत्तमदेव जे सौधर्मादिकके कल्पवासी हैं, ते महाप्रभावसहित हैं, तिनउपरि हीन देवनिका बल चले नाहीं । मनकरिभी तिनितें प्रतिकूल न होय, तथा कल्पवासी उत्तम परिणामनितें उपजै सो तिनकै वेरका कारणभी नाहीं। भगवानकी पूजा तथा स्वर्गनिके भोगनिहीविर्षे तिनकू आनन्द वर्ते है । तिनकें असुरनसहित युद्ध कहना मिथ्यात्वके निमित्ततें अवर्णवाद है। आगें द्वितीय निकायकी सामान्यविशेषसंज्ञाका नियमके अर्थि सूत्र कहें हैं rtertaineraikirectorariksix. For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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